परिवर्तन की बयार में
मर गई है हमारी संवेदनाएं /
अजामिल
मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं 70 के दशक से लेकर 2017 तक के इलाहाबाद में हुए विभिन्न क्षेत्रों के छोटे-बड़े परिवर्तनों का बहोशी मैं साक्षी रहा हूं । मैं कह सकता हूँ
कि इलाहाबाद हमेशा से
सम्वेदनाओं को जीनेवाला शहर रहा है । यहां आदमी से आदमी के रिश्ते बहुत गहरे रहे हैं । BBC के वरिष्ठ संवाददाता कैलाश बुधवार और मार्क टुली ने मिलकर इलाहाबाद पर लगभग 40 मिनट का एक बेहतरीन रेडियो फीचर प्रसारित किया था जिसमें वे लगातार इस बात को कहते रहे थे कि इलाहाबाद मैं कुछ भी खास नहीं है सिवा इसके कि यहां के लोग संवेदनओं का सम्मान करते हैं । मुझे याद है कि 80 के दशक में ये दोनों वरिष्ठ रेडियो पत्रकार जब तक इलाहाबाद में रहे , तमाम लोगों से मिलकर यहां के लोगों के दिल और मिजाज का ही जायजा लेते रहे थे ।
70 से लेकर सन 2000 तक इलाहाबाद में कुछ खास नहीं बदला था । साहित्य कला संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में अपने -अपने विचारों के साथ एक-दूसरे के खेमे में प्रेमपूर्ण आवाजाही थी । लोग सुख - दुख में शामिल होना अपना धर्म मानते थे .। कला और साहित्य के क्षेत्र में लोग एक दूसरे से बिना किसी भेदभाव के मिलते थे और एक दूसरे का हालचाल लेते थे । नया क्या लिखा पढ़ा जा रहा है , संस्कृति के क्षेत्र में क्या हो रहा है , इसकी जानकारी उनके लिए जरूरी होती थी ।
विश्वविद्यालय के छात्रों से जब मिलना होता था तब् उनके हाथ में उस दौर की तमाम जानी - मानी वैचारिक पत्रिकाएं और नई पुस्तकें हुआ करती थी । काफी हाउस से लेकर सड़क किनारे के छोटे-छोटे चायखानों पर सहज ही वरिष्ठ कनिष्ठ और उदीयमान साहित्यकारो और संस्कृतिकर्मियों को तमाम ज्वलंत मुद्दों पर सार्थक बहस करते हुए देखा जा सकता था । इलाहाबाद आर्टिस्ट एसोसिएशन और प्रयाग रंगमंच जैसी रंग संस्थाए सिविल लाइंस स्थित पैलेस थिएटर में दिन के पहले पहर में नाटकों का मंचन करती थी । जब नाटक खत्म होता तब उस दौर के सभी बड़े साहित्यकार रंगकर्मी कॉफी हाउस में या पैलेस थिएटर के बाहर फुटपाथ पर देखे गए नाटक की खुले मन से घंटो समीक्षा करते थे ।
साहित्यकार और रंगकर्मी अलग-अलग टापू पर नहीं रहते थे बल्कि इनके बीच स्वस्थ मानसिकता के साथ मिलना -जुलना था ।
कभी कहीं कोई मतभेद पैदा हो गया तो सभी साहित्यकार मिलकर उस मतभेद को दूर कर देते थे । साहित्यकारो और संस्कृतिकर्मियों का एक-दूसरे के परिवारों में आना-जाना था । युवा पीढ़ी को सही दिशा दिखाना और उन्हें अच्छे कामों के लिए प्रोत्साहित करना वरिष्ठ अपना दायित्व समझते थे । इलाहाबाद का कोना-कोना अपना लगता था । महसूस होता था कि संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों के बहुत से घर है । कोई कहीं भी जाकर अपनी भावनाएं और संवेदनाएं साझा कर सकता था । ये संबंध जबरदस्त ऊर्जा से भरे होते थे और अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करते थे ।
आज इलाहाबाद सिर्फ भौतिक रूप से ही नहीं बदल गया बल्कि हमारे संबंध और सम्वेदनाओं में भी बहुत कुछ बदल गया है । चारों तरफ भीड़ है लेकिन आदमी बहुत अकेला है । उस इलाहाबाद में अकेला है जिस इलाहाबाद ने संवेदनाओ को जीने की कला किसी वक़्त मेँ पूरी दुनिया को सिखायी थी । आज इलाहाबाद आपस में घुलने मिलने और नए रचनात्मक रचाव के प्रति आग्रहशील नहीं रहा है ।
हम यह भूल गए हैं कि दुनिया में जहां कहीं भी कोई बड़ा परिवर्तन हुआ है तो उस क्रांति को करने वाले लोगों ने इलाहाबाद की प्रतिक्रिया पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है । इलाहाबाद सचमुच बहुत बदल गया है और हम बदले घर में अपने को खोज रहे है ।
अजामिलं
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