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Thursday, July 28, 2011

शेष-अवशेष !

यकायक लगने लगा कि
मैं जवान हो गया हूं
पच्चीस पतझड़ मुझे
रौंद कर चले गए हैं
और हवा में फैल गए हैं
गंध कीट
कि अब कोई नहीं है
ताजी हवा के लिए
खिड़की खोलने वाला
कि मुझे अर्थ देते-देते
तार में पिरोकर
टांग दिया गया है
पुराने पत्रों की तरह
अपने ही घर के किसी कोने में

मेरे अस्तित्व की जानकारी
मुझे सिर्फ इतनी ही है
कि समय ने
मेरे मैं को निकाल दिया है
और मैं अपने भीतर रच रहा हूं
एक आत्महत्या

उस रात जब पिता ने
बेहिसाब उत्तेजना के थूक से
मेरा चेहरा रंग दिया था
मुट्ठियां भींचते हुए
आंखों में उतर आए खून को
मेरी मां के साथ
मेरा वह रिश्ता जोड़कर
बयां किया था
जो दरअसल
उनका मेरी मां के साथ था
यकीन मानिए
पिता उस वक्त मुझे
बेहद निरीह
और दया के पात्र लगे थे
टूटन, खीझ और असफलताओं ने
उनके भूत, भविष्य, वर्तमान की
परिभाषाएं बदल दीं थी
और ऐसे में अगर किसी
फालतू वक्त में
सुख तलाशते-तलाशते
उन्होने मेरी मां के गर्भ में
मुझे बो दिया था तो
इसमें उनका क्या दोष ?
वे तो इस दुर्घटना को भूल गए थे
सही मर्द की तरह
पीठ फेरकर सो गए थे उस रात

काश कि उन्हे मालूम होता
कि आजादी दीवार पर
सजा देने की चीज नहीं
महसूस करने की चीज है
पिता, पिता हैं
उन्होने मुझे रचा है
अब अगर मुंह फेरकर
मेरे अस्तित्व को नकारते हैं
खेलते हैं शुतुरमुर्ग का नाटक
तो मुझे क्या ऐतराज हो सकता है
सिवा इसके कि मुझे रोकने से पहले
देश का मौसम तो जान लेते
शेष-अवशेष इस जिंदगी को
अगर पिता ऐसे मौसम में
रिश्तों की नई बुनावट में रच डालते हैं
और हर जिम्मेदारी से पीछे हटकर
काट देना चाहते हैं मेरी जड़ें
तो बुरा क्या है ?

मैं सड़क पर आकर क्या करुंगा ?
यह सवाल मेरे सामने
कब से छटपटा रहा है
और मैं व्यक्ति से लेकर
प्रतिष्ठानों तक को आशा के साथ
देख रहा हूं
महसूस कर रहा हूं कि
मुझे कबूतर उड़ाना छोड़कर
पसीना पोंछना चाहिए
विरोध की भाषा को नए अर्थ देते हुए
पूर्वजी पीपल के पेड़ पर
बैठे सफेद कौवों की
कांव-कावं चुप करा देनी चाहिए
हमेंशा के लिए

लेकिन यह एहसास
मुझे तभी होता है
जब मैं सोचता हूं कि
मैं जवान हो गया हूं और
पच्चीस पतझड़ मुझे रौंद कर
चले गए हैं
पिता टूट रहे हैं
हर दिन हर पल
और मैं शेष अवशेष
उस पार खड़ा घर के भीतर
कनखियों से झांकता रहता हूं
सारा कुछ नकारने के क्रम में।

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