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Wednesday, June 8, 2011

संवाद !

ध्यान से सुनो
संवाद कर रहा है गहन सन्नाटा।

नंगे पैर-बिल्ली कर तरह
दबे पाँव- पत्तों को दुलराती दौड़ रही हैं
हारी थकी ठंडी हवाएँ।

खिड़की के पार
कोई नदी पसरी है
दिव्यता की घाटी में।

चट्टानों के बीच डोलती चाँदी की तरह
काँप रहा है चाँद
ध्यान से सुनो,
कहीं कुछ टूट रहा आत्मीय रिश्तों के बीच
और मैं अपनी डायरी में लिख रहा हूँ -
यूँ ही बस यूँ ही बीत गया एक उदास दिन।

पानी ने काटे हैं पत्थर
सहलाया है जी भर
जैसे रचता है कोई मन
किसी मन को
बड़े मन से
मौन के संगीत में।

सब कुछ सुन्दर हो जाता है
अंतस की सुन्दरता से

राह के पत्थरों को
जो सीढ़ियाँ बनाएँगे
याद रखो- सीढ़ियाँ चढ़कर भी वही जाएँगे

शुभ-सुन्दर और सुखद हैं चट्टानें
हस्ताक्षर करो इन पर
नहीं लिखना विरासत
अभी तो उड़ना है आकाश में
ऊँचे..... बहुत ऊँचे
चहचहाती चिड़ियों के साथ।

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