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Thursday, July 28, 2011

सूरज के फूल !

अजीब शक्ल में मेरे सामने
उभर आता है यह सवाल

करोड़ों निराश्रितों का यह ठंडा जलजला,
दीमक खाये दिमागों वाले किताबी बुद्धिजीवी,
घर-घर फैलता महायुद्ध,
उदास आंखों वाले दुविधाग्रस्त
अभिमन्युओं की भीड़,
सौ रुपल्ली में किसी बनिये की
मुंशीगीरी करते भीष्म पितामह,
और देश का यह बासी मौसम,

सूरज के यह फूल
अर्पित करुँ तो किसे करुँ ?

ईश्वर !
तुम्हारा अस्तित्व किसी खेत में खड़े
बिजूखे-सा क्यों हो गया है -
गूंगा, बहरा और अंधा ?
जोर-जोर ढ़ोल की आवाज सुनकर
तुम क्यों नहीं नाच उठते ?
अपनी ही रचना का विनाश,
तुम्हें क्यों नहीं चीखने पर विवश करता ?
क्यों अंधी व्यवस्था के लिये
तुम भी अंधे हो गये ?

आजादी अब परिभाषा की केचुल बदलकर
बैठ गई है -
आजादी अब खूंटे से बंधे रहने का नाम है,
आजादी अब पिंजड़े में अंडे देने का नाम है,
आजादी अब कुत्ते से भौंकने का नाम है,
आजादी अब रह-रहकर चैंकने का नाम है,
जनतंत्र से कट गये हैं - जन
रह गया है तंत्र,
कर्णधार मंत्र कुर्सी से चिपके रहने का,

हर सुबह मंच से उछाला जाता है -
मनुष्य मूल्य
आंकड़ों की भाषा में
हमें पढ़कर खोज ली जाती है,
एक वोट की सार्थकता

ईश्वर !
यह कैसा देश है ?
ये कैसे लोग हैं ?

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