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Thursday, July 28, 2011

इस देश में !

अब मैं नहीं चाहता
कि कोई सुबह मेरे लिए संवेदन भरी हो,

यकीन कीजिए
पच्चीस कलाबाजियाँ खाने के बाद
मैं जान गया हूँ
बन्द दरवाजों के रहस्य
राजा, कुर्सी, तंत्र, मोहजाल, मोहमंत्र
मैं जान गया हूँ पारदर्शी कांच के उस तरफ
खूबसूरत मगर मछली-सी कैद
बेजुबान जिंदगी के मतलब

दर्द काले सांप-सा
कुण्डली मारकर बैठ गया है पिण्डलियों में
यह पचपन करोड़ का देश
गठिया भोग रहा है
एक अदद मैं कब्रिस्तान से जागकर
चीखता भी रहूँ तो कौन जागने वाले हैं मुर्दे
भविष्य को आँख फाड़कर देखता रहूँ
वर्तमान कंधे पर ढ़ोता रहूँ -
बस हो चुका

क्रान्ति लाने के लिए क्रान्ति
बहसों के उबलते सोते
टोपियों के खूबसूरत रंग
और खुद को बेचते मजमेबाज

सार्वजनिक पेशाबघरों में सूखती है क्रान्ति
हर नामर्द चेहरा शिलाजीत की गोलियाँ खाता
क्रान्ति-क्रान्ति चिल्लाता
अक्सर शहर के चैराहों पर दिखता है
कितनी बड़ी भ्रान्ति है यह क्रान्ति
संवेदन जो घुटे चेहरों पर उगते हैं
हमें मृग-मारीचिका-सा ठगते हैं
कब खत्म होंगी ये गर्म रेत यात्रायें
कब खत्म होंगे ये शुतुरमुर्ग जैसे आचरण
कब सवालों को मिलेंगे जवाब
अपने आप की यह बेहिसाब खोज
किस आदमी की हत्या से जन्मी है ?
हर क्षण हर पल मैं घिरा रहता हूँ
अपने सशंकित वर्तमान से
डर लगता है घर के भीतर जाते
कोने में खाँसी के कीड़े
बूढ़े पिता असमर्थ निरीह
घर के भूगोल में पिघला अंधेरा, मेरा भय
एक लड़की पतझड़ बनकर रह गयी है
वसंत की प्रतीक्षा में

सोचता हूँ
गहरे रंगों के सुख ओढ़कर
दुख पीते जाना
हर रोज चारपाई पर टूटना मर जाना
इससे तो बेहतर था
कि मैं नाली में ही बहा दिया जाता
ऐसे में मैं नहीं चाहता कि कोई सुबह संवेदन भरी हो
मेरे कवि तुम कहो
गाओ क्रान्ति गीत
पर यह मत भूलो कि पत्थर गूंगे और बहरे दोनों होते हैं
फेफड़ों में हवा लेने के लाइसेंस जारी होंगे
तब हमें हिचक नहीं होगी
एक-दूसरे की सांस पीने में
एक बदबूदार कंबल या देशी शराब की
महुआई गंध के नशे में हम रच देंगें एक व्यवस्था
यह सोचते हुए कि
यह कैसा देश है, यह कैसे लोग हैं ?
जहां फैला है तीन आने से तीन हजार तक समाजवाद
और गरीबी हटाते-हटाते
आर्थिक तंत्र को मार गया है लकवा
खरीद ली गयी हैं हमारी आवाजें
चेहरे, चेहरे और चेहरे
आवाज कुछ नहीं

एक देश है एक सड़क है
और भेड़ों का झुण्ड है
मेज पर पटके गये हाथ
हड़ताल में सूखता आदमी
नारे, नारे, नारे
बेकार सारे के सारे
आवेश, समझौता, समर्थन
कुंए के पानी-सा सड़ रहा है
दिमाग के हर तंतुओं को सचमुच बेहद गड़ रहा है
मतपत्रों के नाम व्यवस्था बिक रही है
किरकिरी-सी काटती है
धुंधलायी दिख रही है

जाने कब सुबह होगी

लेकिन मैं नहीं चाहता
कि कोई सुबह संवेदन भरी हो।

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