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Sunday, September 11, 2011

अपनी-अपनी खुशी में है सबकी खुशी !

गोबर से लीपा घर हो
चूल्हे में जलती हो आग सुबह-शाम
नलके में आता हो पानी मतलब भर
समय से सब लौटते हों काम से
नशा-पत्ती से दूर रहें घर के मरद
बहू पूरे दिनों से हो उम्मीद लिए
अचार-बड़ियों का स्वाद हो कभी-कभी
बनें रहें गुलू के बाबू
बस इतना ही चाहिए अम्मा को जीने के लिए

बड़ों का लिहाज करें बच्चे
चार अक्षर पढ़ जाये बिट्टो भी
संगठित हों हिन्दू
अखंडित हो राष्ट्र
बनी रहे कांग्रेस
बस्ती से दूर रहें मक्खी, मच्छर और नेता
पेट साफ रहे
बाबू की खुशियाँ कहाँ जाती हैं इससे आगे

दूध में धोयी गोरी चिट्टी तेरह की
बिट्टो को चाहिए खुशी के लिए इमली,
रिबन के लिए दो रुपये और माधुरी दीक्षित जैसा
हरे रंग का लांचा

गुलू खुश हैं टीवी के आगे
खुश हैं तेज रफ्तार सवारी पर भागते हुए
खुश हैं कपिल, गवास्कर, शास्त्री के साथ
क्रिकेट के पिच पर
खुश हैं कोचिंग क्लास में
उस बेमतलब मुस्कुराने वाली लड़की को देखकर
खुश हैं अनिश्चित काल के लिए कॉलेज बन्द हो जाने पर
कब खुश होते हैं गुलू, कब उदास हो जाते हैं
कहाँ जान पाते हैं सोलह के गुलू भी इसे

बीवी खुश है
सिले गये नन्हे-नन्हे झबलों में
बुने गये स्वेटर में
मगन है आने वाले के सपनों में
खड़िया, मिट्टी खाते हुये

इन दिनों अपनी-अपनी खुशी में है सबकी खुशी।

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