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Wednesday, June 8, 2011

गनेसी कथा !

चारों ओर से कोहरे में फंसा हुआ
गर्दन तक दलदल में धंसा हुआ
इतिहास के गाढ़े धुँधलके में खो गया है गनेसी
हर नयी व्यवस्था के नाम
मतपत्रों का पर्याय हो गया है गनेसी।

गनेसी आन्दोलन है-शब्द है
लुटने-खसोटने को हरिजन की बेटी-सा
गनेसी उपलब्ध है।
गनेसी नारा है-झंडा है।
उर्वरा मुर्गी है - सोने का अंडा है
महलों की नींव के लिए गनेसी मिट्टी है, गारा है
रोआं-रोआं कर्ज में डूबा, उफ ! गनेसी कितना बेचारा है।

थकी जिंदगी का दर्द पीता
काली किताब का मार्मिक अध्याय हो गया है गनेसी।

वक्त की मार से झुका हुआ
हरी घाटी में पानी-सा रुका हुआ
बदबू करता है, सड़ता है गनेसी
आँखों में किरकिरी-सा गड़ता है गनेसी
रोशनी में अंधेर हो गया है गनेसी।

सूरज-सा निकलेगा गनेसी
लावा-सा एक दिन पिघलेगा गनेसी
अंदर-ही-अंदर सुलगता-बुदबुदाता
बारूद का ढ़ेर हो गया है गनेसी।

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