आज़ादी के बाद से शिक्षा के
अधिकार से जुड़े कानूनों ने आम और ख़ास लोगों के भीतर भले ही सर्वांगीण विकास की
कितनी ही उम्मीद क्यों न जगाई हो, लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी देश में कई करोड़
गरीब परिवारों के बच्चे ऐसे हैं जो प्राथिमिक सिक्षा से वंचित हैं | वित्तीय
कठिनाईयों के मद्देनज़र केंद्र और राज्य सरकारें सिक्षा के अधिकार को माध्यमिक
सिक्षा और उच्च सिक्षा पर लागू नहीं कर पा रही है | गरीबी उन्मूलन पर भारत में हुए
अनेक सर्वेक्षणों में समय-समय पर यह संकेत दिए हैं कि गरीबों, दलितों और वंचितों
के वर्गों से आने वाले असंख्य परिवार बुनियादी सिक्षा का अधिकार न पाने के कारण
अपनी गरीबी से मुक्त नहीं हो सके | जब कि इन वर्गों के जिन परिवारों को सिक्षा का
अधिकार मिला, ऐसे परिवार किसी न किसी सरकारी अथवा प्राईवेट नौकरी में आ गए | ऐसे
वर्गों को सिक्षा का समुचित अधिकार मिलने पर यह देखा गया कि उनका चयन अच्छे सिक्षा
संस्थानों में आसानी से हो गया | इसके विपरीत आज भी बड़ी संख्या में ऐसे युवा और
बच्चे हैं जिन्हें सिक्षा का अधिकार अब तक नहीं मिल पाया है | 18 वर्ष से 24 वर्ष
के युवाओं में जिन्हें उच्च सिक्षा का अधिकार मिला उनमे केवल 18 प्रतिशत युवा भी
शामिल हैं | भारत के 18 प्रतिशत सकल नामांकन दर की तुलना में यह दर थाईलैंड में 40
प्रतिशत, मलेशिया में 40 प्रतिशत चीन में 30 प्रतिशत, दक्षिण कोरिया में 100
प्रतिशत, न्यूज़ीलैंड में 83 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया में 80 प्रतिशत और समूचे विकसित
देशों में 50 प्रतिशत के आस पास है | यूनेस्को के सर्वेक्षण के अनुसार पूरे विश्व
में सिक्षा की सकल नामांकन दर तकरीबन 30 प्रतिशत के करीब है |
आज विश्व में 7.5 प्रतिशत
बच्चे बुनियादी सिक्षा के अधिकार से वंचित हैं इसमें भारत का हिस्सा सबसे ज्यादा
है | बच्चों को उनका बुनियादी सिक्षा का अधिकार अभी तक क्यों नहीं मिल पाया इसका
ज़वाब आज किसी के पास नहीं है और न कभी गहराई में जाकर इसे जानने की कोशिश की गई | सिक्षा
के अधिकार के मुद्दे को लगातार सरकारें नज़रंदाज़ करती रहीं | राजनीति के काली छाया
के तहत सिक्षा का अधिकार दबा रहा और यह उन गरीब वंचितों तक नहीं पहुँच पाया
जिन्हें कि इसकी विशेष रूप से आवश्यकता थी | वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार शून्य
से छः वर्ष आयु वर्ग के 15 करोड़ 80 लाख बच्चे आज सिक्षा के अधिकार से वंचित हैं | आज़ादी
के बाद सिक्षा के अधिकार के मुद्दे को प्राथमिकता के आधार पर जांच परख कर वंचित
गरीबों तक ले जाना चाहिए था लेकिन हमारे देश में नीतिकारों ने यह ज़िम्मेदारी नहीं
उठाई | सिक्षा के अधिकार के मुद्दे को हमेशा सतही तौर पर देखा गया इसका नतीजा यह
रहा कि सिक्षा से वंचित समाज, समाज की मुख्य धारा में न आ कर संपन्न समाज के लिए
संसाधन बनके रह गया | आज सबसे खराब स्थिति देश में सिक्षा व्यवस्था की है | यह
आश्चर्यजनक है कि सिक्षा पाने के अधिकार को खुला आकाश देने की जगह सरकारों ने जनता
पर 2 प्रतिशत सिक्षा अधिकार कर लगा दिया | जबकि सिक्षा प्राप्त करना आज़ाद देश में
सबका बुनियादी अधिकार होना चाहिए था और जिसे देने की ज़िम्मेदारी सरकारों को निभानी
चाहिए थी |
आज़ादी के बाद से सरकारें कई
अरब रूपए सिक्षा के नाम पर खर्च कर चुकी हैं, लेकिन सिक्षा के क्षेत्र में कोई गति
या रेखांकित किया जाने वाला विकास नहीं देखी देता | हालात सिक्षा को प्राईवेट
सेक्टर में दाल देने के कारण और भी ज्यादा बिगड़ गए हैं | निजी हाथों मिएँ सिक्षा
की सूरत एक बड़े व्यापार में बदल गई है | प्राईवेट सेक्टर में सिक्षा को नफा और
नुकसान की नज़र से देखा जा रहा है | इस सेक्टर में सिक्षा एक ऐसे सौदे में तब्दील
हो गई है जिसे पाने के लिए केवल अर्थ ही आधार बन गया है | प्रतिभा और योग्यता
हाशिए पर चली गई है | संपन्न वर्ग से आने वाले बच्चे ही निजी हाथों में खेल रही
सिक्षा को हासिल कर पा रहे हैं जबकि करोड़ों बच्चे ऐसी सिक्षा से वंचित हैं | देश
के पहले सिक्षा मंत्री डॉ अबुल कलाम आज़ाद ने साफ़ तौर पर कहा था कि सिक्षा के
अधिकार को लेकर किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए | उनका कहना था कि देश के हर
बच्चे और हर युवा को शिक्षा पाने का अधिकार मिले और इसकी ज़िम्मेदारी केंद्र तथा
राज्य सरकारें क़ुबूल करें | उनका ये भी मानना था कि जब सिक्षा के विस्तार की
ज़िम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों के पास होगी तो उसका विकास भी आसानी से होगा,
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया | इसके पीछे एक सोची समझी राजनैतिक साजिश का होना बताया
जाता है | सरकारें मानती हैं कि शिक्षा का विकास होने पर सरकारों को काम करने में
बाधाएं उत्पन्न होंगी | लोग पढ़े लिखे होंगे तो नियमों और कानूनों के पालन से पहले
विचार विमर्श करेंगे | उनका सोचना सरकार के लिए खतरा भी उत्पन्न कर सकता है | ज़ाहिर
है कि इस सोच के चलते शिक्षा का विकास संभव ही नहीं है |
आज समवर्ती सूची में होने के
बावजूद शिक्षा जगत से जुड़ा सारा काम काज आम तौर पर राज्य सरकारों के भरोसे चल रहा
है | यही वजह है कि देश में शिक्षा का सामान विकास नहीं हो पाया और नाहि शिक्षा को
सामान विस्तार मिल सका | यह आश्चर्यजनक है कि आज़ादी के 66 वर्ष बीत जाने के बावजूद
पूरे देश के लिए अभी तक कोई सर्वमान्य शिक्षा नीति नहीं बने जा सकी है और न कोई
सर्वमान्य पाठ्यक्रम ही तैयार कर पाए हैं | करोड़ों बच्चों ने अभी तक स्कूल का मोह
नहीं देखा है | जो पढ़ रहे हैं उन्हें दी जाने वाली शिक्षा अलग-अलग मानकों की हैं |
जो जितना पैसा खर्च करके शिक्षा को खरीद पा रहा है उसे उतना ही फायदा हो रहा है और
जो पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं है वह शिक्षा से अभी तक बहुत दूर है | स्कूलों
से तथाकथित पढ़ लिख कर जो बच्चे आ रहे हैं उनका स्तर बहुत अच्छा नहीं है | केंद्र
सरकार शिक्षा के नाम पर राज्यों को जो अनुदान दिया करती थी उसे बंद कर दिया गया है
| यह बहुत दुखद है कि शिक्षा के क्षेत्र में आज जितनी भी योजनाएं चलाई जा रही हैं
वह सब विश्व बैंक से मिलने वाले अनुदान के भरोसे चल रही है | इतना ही नहीं लगभग 80
फ़ीसदी स्कूलों को विश्व बैंक की गाईड लाइन पर चलाया जा रहा है | सहज ही समझा जा
सकता है कि भारत की शिक्षा के विकास को लेकर विश्व बैंक की उदारता का क्या मतलब है
|
विश्व बैंक की गाइड लाइंस पर
ही सरकारें प्राथिमिक शिक्षा की साड़ी ज़िम्मेदारी को ग्राम पंचायतों को सौंपने की
तैयारी में है | ग्राम पंचायतों को प्रथिमिक शिक्षा के संचालन का कितना अनुभव है
और उनके संचालन से कैसा विकास होगा ये आसानी से सोचा जा सकता है | रही बात
माध्यमिक शिक्षा की, तो यह आज पूरी तरह से प्राईवेट सेक्टर में जा चुकी है | प्राईवेट
सेक्टर के स्कूलों ने माध्यमिक शिक्षा को एक सबसे ज्यादा मुनाफ़ा कमाने वाला
व्यवसाय बना दिया है | प्रश्न उठता है कि इन हालातों में हम ऐसी शिक्षा बच्चों को
देने की कैसे आशा कर सकते हैं जो लोकतंत्र की रक्षा कर सकें | उच्च शिक्षा की
स्थिति और भी ज्यादा ख़राब है | उच्च शिक्षा में पूंजीपतियों ने करोड़ों रुपया निवेश
कर दिया है | उच्च शिक्षा का क्षेत्र अब ज्ञान और सेवा का क्षेत्र नहीं रह गया है
| यह क्ष्टर शिक्षा की बड़ी इंडस्ट्री बन चूका है | बड़े मुनाफे की संभावनाओं को
देखते हुए अब तमाम विदेशी शिक्षा संस्थाओं ने भी भारत में इस पर पूंजी निवेश करना
आरम्भ कर दिया है | विदेशी पूँजी से संचालित होने वाली शिक्षा संस्थाएं देश में सर्वोत्तम
शिक्षा की दावेदारी में प्रतिस्पर्धा करेंगी या अधिक से अधिक पूँजी कमाने के लिए तिकड़में
चलाएंगी |
आज देश भर में 10 हज़ार 200
लाख स्कूल अपनी अच्छी बुरी हालत में संचालित हो रहे हैं | इनमे 40 लाख माध्यमिक
विद्यालय हैं | देश की आबादी आज 1 अरब से ज्यादा हो चुकी है | शिक्षा के अधिकार की
बात करें तो क्या जितनी संख्या में आज प्राथिमिक और माध्यमिक विद्यालय हैं उनसे
सभी को शिक्षा दी जा सकती है | दुःख इस बात का है की मज़बूत इक्षा शक्ति के अभाव
में हम आज तक अच्छी शिक्षा के लिए समुचित साधन तक नहीं जुटा सके | हालांत ये हैं
कि विद्यालयों में प्रवेश के लिए ही जितनी मारा मारी होती है, उसमे शिक्षा के
अधिकार के पैरों का टिकना ही संभव नहीं होता | भ्रष्टाचार को पनपने का अलग मौका
मिल जाता है | शिक्षा का अधिकार सबको मिले इसके लिए हम आज तक कोई नीति नहीं बना
सके | इस समय देश में 1.4 लाख सरकारी और गैर सरकारी सहायता प्रापर माध्यमिक
स्कूलों में आईसीटी सुविधाएँ उपलब्ध हैं | आश्चर्य इस बात का है की इन स्कूलों में
भी शिक्षकों की कमी बनी हुई है | देश के दूर दराज़ इलाकों में 28 ह़जार के लगभग ऐसे
स्कूल हैं जहाँ बिना किसी सनसंसाधन की तथाकथित कागजों पर स्कूल चलाए जा रहे हैं |
सरकारें बालिकाओं की शिक्षा के लिए करोड़ों रूपए का विज्ञापन प्रति वर्ष जन संचार
माध्यमों को देती हैं लेकिन देश में पर्याप्त स्कूल कॉलेज खोलने की दिशा में कोई
कदम नहीं उठाते |
आज देश में कॉलेजों की संख्या
30 हज़ार के आस पास है और विश्विद्यालय 600 के लगभग हैं | सोचने वाली बात ये है की
जिस देश की जिन संख्या का 50 करोड़ 18 वर्ष या उससे ऊपर की आयु का युवा हो, ये थोड़े
से कॉलेज और विश्विद्यालयों के माध्यम से उन्हें उच्च शिक्षा कैसे दी जा सकती है |
आज जो कॉलेज और विश्विद्यालय हैं, उनमे केवल 15 लाख क्षत्रों को ही शिक्षा मिल रही
है | हम सभी जानते हैं की सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक बदलाव के लिए विकासशील देशों
में शिक्षा का अधिकार सभी को दिया जाना बहुत ज़रूरी है, लेकिन देश के भविष्य का
निर्माण करने वाले इस अधिकार को देने के लिए सरकारें अभी तक मूल भोत सुविधाएं ही
नहीं जुटा पायी हैं | इसके पीछे जो भी कारण है उसके आधार में एक ऐसा नज़रिया अपनी
जड़े जमाए हुए है जो शिक्षा के विकास और विस्तार में बाधा बना है | शिक्षा को
राजनीति से बचाना होगा तभी उच्च शिक्षा के अधिकार को भी बचाया जा सकेगा |
सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा
का अधिकार क़ानून के लागू किये जाने के बाद
भी प्राथिमिक शिक्षा के स्तर में कहीं कोई सुधार नहीं हुआ है | शिक्षा का अधिकार
कानून लागु किये जाने के बाद स्कूलों में बच्चों के नामांकन की संख्या में तो
वृद्धि हुई है लेकिन इतनी बड़ी संख्या में छात्रों को शिक्षा देने के लिए संसाधनों
का जो प्रबंध किया जाना था, सरकारों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया नतीजा यह रहा की
शिक्षा की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई | सर्वेक्षण बताता है की सरकारी स्कूलों
में बड़ी संख्या में बच्चों का नामांकन कर लिया गया लेकिन उन बच्चों को पढ़ने के लिए
शिक्षकों का समुचित प्रबंध नहीं किया जा सका | नतीजा यह हुआ की प्राईवेट स्कूलों
में बच्चों के नामांकन और भी ज्यादा हुए | व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में प्राइवेट
स्कूलों की शिक्षा लगातार महंगी होती चली गई | ग्रामीण क्षेत्रों में भी अभिभावकों
ने सरकारी स्कूलों की जगह निजी स्कूलों को ज्यादा महत्व दिया | आज हालात ये हैं की
सरकारी स्कूल किसी प्रकार रो धो कर शिक्षा के अधिकार और सर्व शिक्षा अभियान जैसे
नियमों का पालन कर रहे हैं लेकिन इनकी हालत दिन पर दिन बाद से बत्तर होती चली जा
रही है | वहीँ निजी स्कूलों में नामांकन के लिए जहाँ खासी मारा मरी चल रही है वहीँ
इन स्कूलों में शिक्षा सेवा से ज्यादा व्यापार हो गई है | विशेषज्ञों का मनना है
की राज्यों में शिक्षकों के लाखों लाख पद खाली पड़े हैं | सरकार प्राथिमिक शिक्षा
की गुणवत्ता को मानकों के अनुरूप लाने के लिए अनुमानित बजट का प्रावधान नहीं कर पा
रही है | वहीँ दूसरी ओर मैकाले शिक्षा पद्धति से जुड़ी अंग्रजी शिक्षा का बाज़ार इन
दिनों कुछ इस तरह से गरम हो गया है की हर अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम
से ही पढ़ना चाहता है | इस विचार ने और भी सरकारी स्कूलों को नाकारा बना दिया है | बिना
योग्यता परखे ही ऐसी शिक्षकों की भारती कर ली गई है जिन्हें अभी स्वयं शिक्षित
होने की ज़रूरत है | समाज और सरकार ने शिक्षा के अधिकार के तहत बुनियादी परिवर्तन
की बात नहीं की बल्कि मिड डे मेल, यूनिफौर्म, किताबें. साईकिल, लैपटॉप और छात्र
वृत्तियाँ का लालच देकर छात्रों को स्कूलों तक लाने की कोशिश तो की लेकिन इन
प्रलोभनों से न कोई बड़ा परिवर्तन होना था और न हुआ |
आज हमारे देश में लाखों लाख
बच्चे शिक्षा के अधिकार के तहत स्कूल जाते हैं लेकिन स्कूलों में कुछ भी ऐसा नहीं
है जो बच्चों को स्थायी रूप से स्कूलों से जुदा रख सके | अभिनव शिक्षा प्रयोगों की
बात तो छोड़ ही दीजिये सब मानते हैं की शिक्षा की गुणवत्ता को अगर बढ़ाना है तो
शिक्षा प्रबंध को प्रभावी बनाना होगा | सरकारें इस काम को अकेले नहीं कर सकती इसमें
समाज का सोच और भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी | बच्चों की शिक्षा के लिए जिन स्थानों
पर समाज ने रूचि दिखाई वहां शिक्षा का स्तर अपने आप ऊपर चला गया | अध्यापकों की
नियुक्ति स्कूलों में तत्काल की जानी चाहिए | शिक्षा पाने वाले छात्र को प्रलोभन
नहीं, उसके अच्छे काम के लिए पारितोषित दिया जाना चाहिए | छात्रों को मुफ्तखोरी की
आदत अगर एक बार लग गई तो वे अपने जीवन में भी सारा कुछ मुफ्त में हांसिल करना
चाहेंगे | छात्रों के लिए रोचक और नवीनतम पाठ्यक्रम तैयार करने का प्रयास भी होना चाहिए
| पाठ्यक्रम में ऐसी सामग्री होनी चाहिए जो आज के दौर में बच्चों को संघर्ष के लिए
तैयार करती हों नैतिक रूप से सबल बनाती हों और देश प्रेम सिखाती हों | शिक्षा का
अधिकार कानून बना देने मात्र से शिक्षा सब के लिए सुलभ नहीं हो जाती | शिक्षा के
अधिकार की रक्षा तभी हो सकेगी जब बच्चों और शिक्षकों को समुचित संसाधन उपलब्ध काराए जाएँ और अगर ऐसा नहीं होता
तो शिक्षा का अधिकार, कानून एक राजनैतिक ढकोसला ही साबित होगा |
-अजामिल
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