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Wednesday, October 31, 2012

प्रजातंत्र में व्यक्तिगत



कविता

प्रजातंत्र में व्यक्तिगत

अजामिल

लड़ाई भीगे बारूद पर सुलगने लगती है
जब कभी लोग कांचघरों के कैद में होते हैं
व्यक्तिगत मोर्चों पर
आहिस्ता-आहिस्ता कुर्सी की शक्ल में ढाला जाता है
सुविधावादी चरित्र/दीवारों पर चोट करते हाँथ
यहीं से/तने कोहरे को चीर कर
सभी संभावनाओं को ले जाते हैं-
यथास्थिति की रक्षा में...
एक सन्नाटा यहीं से
प्रजातंत्र को खतरे में बदलता है और लोग
पुरानी चिट्ठियों के सहारे करते हैं-अतीत यात्राएं
कितना खतरनाक हो जाता है हमारा व्यक्तिगत
जबकि हवामहल की ऊंचाई पर
अशर्फियों की ऐतिहासिक खनक हो
और रेत पर बनते बिगड़ते अनुभव आकार |
हम अपने बौने होने के क्रम में
उनकी हदों में ले जा रहे हैं उबाल
परिवर्तन की किसी भूमिका को
खुली धुप दिखाने के लोभ में
अनेक चमकदार रंगों की सतह से
आगे जाते पैर सरे बाज़ार खोते हैं
अपना विवेक/गलत और सही को
पहचान देते वक्त हम होते हैं खुले जुलुस में
अपने ही जबड़ों से खून निकालने के लिए |
शह और मात के बीच राजनीति की बिसात पर झुके
दोनों खिलाड़ियों के चेहरे व्यक्तिगत सम्पनता
की मरीचिका में होते हैं तभी घेरेबंदी के तहत
आ जाती है भ्रूण व्यवस्था
कि हर हत्या के लिए लड़ाई
भीगे बारूद पर सुलगने लगती है
बार-बार हर बार...

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