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Monday, January 2, 2012

परिंदे !

उड़ान पर हैं परिंदे ...
कांपती-ठिठुरती हवा की ताल-लय पर
परिंदे गा रहे हैं –आज़ादी के गीत
... क्या देस-क्या परदेस
जल की सतह से बूंद-बूंद पानी चुगते परिंदे-
एक कुल –एक कुटुंब हैं – पृथ्वी के
भूगोल को नापते हुए ।
कभी नष्ट नहीं होगा उनका संघर्ष
इच्छाओं के अनंत आकाश में
शब्दातीत हैं उनकी उड़ान
नदियों की अतल गहराई में प्रतिबिम्बित
होती है उनकी गूंज ।
मासूम पारदर्शी परिंदे लिखेगें-
उगते सूरज की कहानी
अँधेरा बरसने से पहले-दूर कहीं
अदृश्य में गायब हो जायेगे परिंदे
भोर में उनके लौटने की उम्मीद
तैरती रहेगी पानी पर-पूरी रात
घने कोहरे में कहाँ चले जाते हैं परिंदे ?
कोई नहीं जानता
जैसे कोई नहीं जानता कि
लंबी नींद में जाने के बाद
देह छोड़कर कहाँ चली जाती हैं आत्माएं
कोई नहीं जानता ।
उड़ान पर हैं देह परिंदे
जीवन की नाव पल-प्रतिपल
बढ रही है धीरे-धीरे
परिंदे चीख रहे है और
कोई ताकत उनके साथ खेल रही है
मन बहलाने वाला खेल ।



छायाचित्र:- विकास चौहान

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