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Wednesday, December 14, 2011

थक गये हैं तो क्या हुआ ?


उन्होनें नाट्य-कर्म के साथ अपने रिश्ते को अभी तक तोड़ा नहीं है, बल्कि वो हर पल नाटक ही जीते है, नाटक ही ओढ़ते बिछाते हैं। नाट्य-चिंतन को अगर उनकी जिंदगी से निकाल दिया जाये, तो उनका ही मानना है, कि उनके पास कुछ भी शेष नहीं बचेगा। बात सच भी है, भारतीय भाषाओं के मद्देनजर रंगकर्म को समर्पित, प्रयोगशील, प्रतिबद्ध, वरिष्ठतम् रंगकर्मियों की आज अगर कोई सूची बनायी जाय और उसमें पं0 सत्यदेव दुबे का नाम उनके रंगकर्म के प्रति समुचित आदर-भाव के साथ उस सूची में शामिल न किया जाये तो वह सूची न सिर्फ अधूरी मानी जायेगी, बल्कि उसके बहाने हिन्दी और बहुत-सी इतर भाषाओं के रंगकर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण चर्चा का विश्वसनीय आधार छूट जायेगा। सच तो यह है, कि हिन्दी रंगमंच का इतिहास आज पं0 सत्यदेव दुबे के उल्लेख के बगैर लिखा ही नहीं जा सकता । पं0 सत्यदेव दुबे भारतीय रंगकर्म का एक ऐसा व्यक्तित्व हैं, जो अपने काम के प्रति लगन, समर्पण, भावुकता और उत्तेजना से भरा हुआ है, जो थकान में रहकर भी अपने काम और विचारों से हमें चौंकाता है, और हमारा मार्ग-दर्शन करता है। पं0 सत्यदेव दुबे का कार्य-क्षेत्र बहुआयामी है। बहुत बार अपनी ही बातों में जाने-अंजाने विरोधाभाषों से घिरे रहकर भी पं0 सत्यदेव दुबे बड़ी साफगोई से बतियाते हैं। यही विरोधाभाष और इन्ही के बीच रंगकर्म में संतुलन की तलाश का नाम पं0 सत्यदेव दुबे है। प्रस्तुत है, अजामिल से विभिन्न विषयों पर उनसे हुई लम्बी बातचीत के कुछ प्रमुख अंश...

प्रश्न : रंगकर्म को समर्पित अपनी रंगयात्रा को कैसे याद करेंगे ?

सच तो यह है, कि मैंने कभी ये कल्पना भी नहीं की थी, कि रंगकर्म एक दिन मेंरी जिंदगी का इतना अहम् हिस्सा बन जएगा। आज मैं अपनी हर साँस में नाटक और सिर्फ नाटक के बारे में सोचता हूँ। इसके बिना मैं और कुछ सोच भी नहीं सकता। रंगकर्म करते हुए मैंने अपनी जिंदगी में कभी किसी चीज की की महसूस नहीं की।

प्रश्न : कहाँ से शुरू हुई आपकी रंगयात्रा ?

शुरूआती दौर में मैं खुद भी कुछ नहीं जानता था। विलासपुर मध्यप्रदेश मंे सन् 1936 में एक धनी परिवार में मेरा जन्म हुआ। अंग्रेजी स्कूलों में मेरी शिक्षा-दिक्षा हुई। परिवार में व्यापार होता था। लेकिन मेरा मन न तो व्यापार में रमा और न पैसा कमाते रहना मेरे जीवन का कभी अन्तिम लक्ष्य रहा। बचपन से ही चाहता था, कि कुछ ऐसा करूँ, जिससे सारी दुनिया में मेरा नाम हो, और यही लालसा लिए क्रिकेट में नाम कमाने के उद्देश्य से मैं बम्बई आया था, और मजा देखिए, नाम कमाने की कौन कहे क्रिकेट का मैं एक मामूली खिलाड़ी भी नहीं बन सका। अंग्रेजी और मराठी का ज्ञान होने के कारण मुझे पी0 डी0 शिनोय और निखिल एजकी जैसी हस्तियों के साथ बम्बई में रहकर रंगकर्म करने का अवसर मिला। इनके साथ बतौर अभिनेता मैं काम करता रहा और रंगमंच की बारीकियाँ सीखता रहा।
लेकिन मेरी रंगयात्रा विधिपूर्वक सन् 1959 में आरम्भ हुई- पूरे आत्मविश्वास के साथ। उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ तो मैने हिन्दी के अलवा गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि बहुत सी दूसरी भाषाओं में भी सौ से ज्यादा नाटको के कई-कई शोज किए। डा0 धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध काव्य नाटक अन्धायुग मैंने पहली बार सन् 1952 में बम्बई में किया था। इसके सौ से अधिक शो मैंने वभिन्न शहरों में किये। सन् 1971 में मुझे संगीत नाटक अकादमी ने सम्मानित किया था, निर्देशन के लिए। सच तो ये है, कि मैंने अपनी रंगयात्रा में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और न मुझे कभी पूर्ण संतोष ही हुआ। आज इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी लगता है, कि अभी बहुत कुछ छूटा हुआ है, जिसे मैं कर सकता हूँ और मुझे करना चाहिए।

प्रश्न : मौजूदा दौर में रंगमंच को आप किस प्रकार के संकटों से घिरा हुआ पाते हैं ?

भाई एकजुट होकर सभी रंगकर्मी जिस संकट की चर्चा करते हैं वह है दर्शकों का अभाव। इसमें संदेह नहीं कि तमाम टी0वी0 चैनलों और मनोरंजन के दूसरे साधन आसानी से उपलब्ध होने के कारण नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या में कमी आयी है, लेकिन हमने भी तो इन हालातों को रंगमंच की स्थिति मानकर चुप्पी साध रखी है। इलेक्ट्रानिक क्रान्ति से आतंकित होकर हम खुद ही नाटक को गए गुजरे जमाने की चीज मान बैठे हैं। क्या यह एक बड़ी भूल नहीं है ? क्या हमने कभी सोचा कि विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन के साथ-साथ रंगकर्म के आन्तरिक संकट भी यदि गहरे हुए हैं, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? हमारी प्रतिबद्धता और नाटक के प्रति वास्तविक निष्ठा में भी तो गिरावट आयी है। काम से ज्यादा हम आज धर्म और यश को क्या अन्तिम उपलब्धि नहीं मान बैठे हैं ? रंगमंच से जुड़ी नई तकनीकि के प्रति हमारी कोई रूचि, कोई रूझान कोई जिज्ञासा क्या कहीं दिखाई देती है ? लकीर के फकीर बने रहकर हम रंगमंच के विकास की दिशा मंे कभी कुछ नहीं कर सकते। मैं कभी यह नहीें मानता कि दर्शकों को अगर अच्छी चीज दिखाई जाय तो वो उसे नहीं देखेंगें। दर्शकों के अभाव का संकट उन रंगकर्मियों के सामने ज्यादा गहरा है, जो अभी तक अपनी प्रस्तुतियों के प्रति अपने दर्शकों का विश्वास नहीं जीत पाये हैं।

प्रश्न : तो क्या हमें यह समझौता कर लेना चाहिए कि आज दर्शक जो कुछ देखता है, हम भी उसे वही दिखायें ?

मैंने यह तो कहीं नहीं कहा। आप अपने दर्शकों को जो कुछ भी दिखायें उसमंे एक परफेक्शन होना चाहिए। दर्शकों में अच्छे नाटकों को देखने ओर सराहने की तमीज पैदा करना भी तो एक अच्छे रंगकर्मी का ही काम होता है। कोई नाटक अगर किसी दर्शक के मन में नाटक देखने की ललक पैदा नहीं करता तो, यह बात आप पक्की तौर पर जानिए, कि प्रस्तुति में कहीं न कहीं कमजोरी अवश्य थी। नाटक का असर दर्शक के दिमाग पर थ्री-डाइमेंशनल होता है। अच्छे नाटक में मनोरंजन और विचार का एक ऐसा कॉकटेल होता है, जिसे बरसों-बरस दर्शक याद रखता है, और कन्टेन्ट उसे हॉन्ट करता है। इसके विपरीत रद्दी प्रस्तुतियाँ नाटकों की ओर से दर्शकों को विमुख करती हैं।

प्रश्न : क्या आपको नहीं लगता कि टी0वी0 सीरियल्स और फिल्मों के इस दौर में नाटकों का बाजार ठंडा हो गया है ? गिव एण्ड टेक की इस भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदारी से रंगकर्म करने के लिए अवसर और संभावनाएं समाप्त हो गये हैं ?

मुझे तो ऐसा नहीं लगता। यह समस्याओं के सामने हमारी एक निगेटिव एप्रोच है। निराकरण तो समस्याओं से जूझने पर ही मिलेगा, बहानेबाजी से तो रंगकर्म ठंडा हो जायेगा। आप पहले दर्शकों का विश्वास तो जीतिए, उन्हें भरोसा दिलाइये, कि नाटक दिखाकर आप उनका वक्त जाया नहीं करेंगे। मैंने अपनी प्रस्तुतियों में दर्शकों की कमी कभी महसूस नहीं की। चार-चार महीने पहले मेरे नाटकों को देखने के लिए दर्शकों ने सीटें बुक करायी हैं। आज आप जिन कलाकारों को फिल्मों या टेलीविजन पर देख रहे हैं, उनका बड़ा प्रतिशत रंगमंच से होकर ही वहाँ तक पहुँचा है। रंगमंच अभिनय की जीवंत कार्यशाला है। सच्चे अभिनेता को रंगमंच इतना पीसता है, कि जहाँ गधे भी घोड़े बन जाँए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

प्रश्न : अभिनय के प्रशिक्षण को आप आवश्यक मानते हैं ?

देखो भाई ! अभिनय काफी हद तक एक कुदरती कला है। जिंदगी में सभी लोग कमोबेश अभिनय करते ही रहते हैं, और इसी अभिनय में जिंदगी का सच छिपा होता है, लेकिन मेरा मनना है, कि अभिनय न तो सीखा जा सकता है, और न सिखाया जा सकता है, बावजूद इसके अभिनय के कुछ ऐसे पहलु अवश्य होते हैं, जिनकी जानकारी के बिना किसी अभिनेता को मंच का अनुशासन आना मुश्किल होता है। भाषा और संवादों की अदायगी का सतही ज्ञान एक अच्छा अभिनेता बनने में बाधा उत्पन्न करता है। आज ऐसे बहुत से अभिनेता हैं, जो विभिन्न भाषाओं में नाटक, फिल्में और टी0वी सीरियल्स करते हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है, कि वे अपनी भाषा के व्याकरण मुहावरे और शब्दों की सही ध्वनि तक से अपरिचित हैं। अभिनय कला का बुनियादी उद्देश्य ही यही है, कि कोई अभिनेता अपनी बात को कितने अर्थ-पूर्ण तरीके से संप्रेषित करता है। केवल कमजोर अभिनेता भंगिमाओं का ढ़कोसला खड़ा करते हैं। उनके अभिनय में जीवन की स्वाभाविकता नहीं होती, बल्कि कमजोरियों को छिपाने का एक कथित अभिनय पाखंड दिखाई देता है।

प्रश्न : दूसरी भाषाओं के रंगमंच को लेकर आपके अनुभव क्या रहे हैं ?

हिन्दी के अलावा मैंने मराठी रंगकर्म भी किया है। हिन्दी रंगमंच की सबसे बड़ी कमजोरी यही है, कि इसमें अभी तक पेशेवराना अंदाज नहीं बन सका है। पेशेवर अभिनेता को यहाँ दोयम दर्जे का अभिनेता माना जाता है। रंगकर्मियों में रंगकर्म को एक काम-चलाऊ अंदाज में देखने और करने की एक गंदी प्रवृत्ति यहाँ है। चल जायेगा, निकल जायेगा जैसा मुहावरा हिन्दी रंगमंच पर ही सुनने को मिलता है, जबकि रंगकर्मियों का विश्वास होना चाहिए कि यही सही है। मराठी अथवा बांग्ला रंगमंच पर प्रस्तुति, अभिनय और अभिनेता पूरी तरह प्रोफेशनल हो चुका है। दर्शक पूरे आत्मविश्वास के साथ इन भाषाओं के नाटकों को देखता है। सिर्फ बम्बई में ही डेढ़ सौ से लेकर दो सौ तक नये पुराने नाटक हर साल होते हैं, और हर नाटक के कई-कई शो किये जाते हैं। अनुदानों ने भी नाटकों का बड़ा अहित किया है। आज रंगकर्मी अपने दर्शकों के अनुराग पर कम, सरकार के अनुदान पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। सांस्कृतिक केन्द्रों, नाट्य-अकादमियों और बहुत सी दूसरी रंग-संस्थाओं ने कोई अनुराग-धर्मी रंगकर्मी पैदा होने ही नहीं दिया। रंगकर्म की जरा भी तमीज रखने वाले अधिकतर अधिकारियों ने अनुदान का लालच देकर रंगकर्मियों को कठपुतलियों में बदल दिया है। सारा कुछ अनुदानों, लेनदेन और पहुँच पर जाकर ऐसा सिमट गया है, कि दर्शक आज बेशऊर उपभोक्ता दिखाई देने लगा है। लाखों रूपये अनुदान के खर्च करके जब कोई संस्था नाटक अलीबाबा चालीस चोर करती है, तब उसके सामाजिक सरोकार स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। हिन्दी रंगमंच आज भी दरबारी रंगकर्म की सीमाओं में बँधा हुआ है। यहाँ सृजनात्मकता की लगभग हत्या हो चुकी है। हिन्दी रंगमंच के पास कोई सामाजिक समर्थन भी नहीं है। अनुदानों के भरोसे रंगकर्म जिन्दा नहीं रह सकता। यह काम जनचेतना से जुड़ा है, और जनता ही इसे जीवित रखती है। रंगकर्म एक उत्सव है, जो हमारे जीवन से जुड़कर साँस लेता है।

प्रश्न : इसका मतलब यह हुआ कि सांस्कृतिक केन्द्रों और नाट्य अकादमियों की कोई भूमिका नहीं है ?

मेरी नजर में फिलहाल कोई भूमिका नहीं है। मैने आज तक अपने नाटकों के लिए अनुदान स्वीकार नहीं किया। शायद यही वजह है, कि मैं अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाये रख सका हूँ। मै कभी किसी अनुदान अथवा पुरस्कार के लिए रंगकर्म नहीं करता।

प्रश्न : ओमपुरी, शबाना आजमी, नसीरउद्दीन शाह और स्व0 अमरीश पुरी आदि न जाने कितने अभिनेताओं के आप गुरू रहे हैं। इनकी सफलता को देखकर आपको कैसा लगता है ?

अपने बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते ? मुझे इस बात की खुशी है, कि आज भी बड़े से बड़ा अभिनेता मेरे एक इशारे पर समय निकाल कर रंगमंच को मेरे साथ जीने के लिए तैयार हो जाता है। रंगमंच के साथ इन बड़े अभिनेताओं का रिश्ता आज भी बना हुआ है। एक नाटक करने के बाद ये अभिनेता कई-कई महीनों तक अपने को ऊर्जावान महसूस करते हैं।

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