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Tuesday, December 13, 2011

शक्ल !

समय एक खाली स्लेट की तरह था।
और वर्तमान के अय्यास
रंग भोगते कुछ भोथरे लोग
अपनी गलीज आकांक्षा के फ्रेम में उसे कस रहे थे ।
तभी तपती दोपहर के सनसनाते एकांत में
मैंने उस पर एक शब्द लिखा था '''''''''''' भूख।
उस क्षण आसपास चुभती शक्लें
मुखौटों के पीछे आँखें चलाने लगी थी
वे अपने जमे पैरों पर आतंकित हो गये थे।
स्थिति संतुलन के लिए
मैं कोई रोचक झूठ तलाशने लगा था
तभी, बिलकुल तभी ।
कुछ समझदार लोग मेरे नाबालिग बेटे को
मर्दानी कमजोरी का भेद समझाने लगे थे ।
मैं समझता था । मैं समझ गया हूँ -
दूर डूब गये कल और एक भ्रूण आज के बीच
इतिहास ने जो कुछ हमें दिया है वह
संवेदना के स्तर पर दिमाग पर
फौजी बूटों का दबाव झेलता रहा है।
अब तुम आईने के सामने
इस तरह बागी दिखते हो कि वक्त तुमसे पूछे -
तुम्हारी प्राथमिक आवश्यकता तो, तुम कहोगे-एक बदजात औरत, और
मुझमें से मेरा ‘मैं’ निचोड़ देने के लिए कोई पुरानी शराब,
मैं जानता हूँ मेरा बेटा
काल की छाती पर लिखा ‘भूख’ शब्द नहीं काटेगा,
शिकारी कुत्तों के दस्ते में शामिल होकर
वह बारूद के खतरनाक खेल करेगा ।
कभी न कभी भूख को नई परिभाषा देगा !
भूख: शरीर में होने वाली ऐसी उत्तेजनात्मक कार्रवाई है
जो आदमी को दुश्मन के खिलाफ खड़ा करती है
मुझे नहीं भूलना चाहिए कि कल इन सुगबुगाते लोगों के बीच
एक और हवा होगी-


(प्रस्तुत कविता मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के मासिक प्रकाशन ‘साक्षात्कार’ के सितम्बर, 1977 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)

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