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Tuesday, December 13, 2011

जूते और टोपी !

चापलूसी के लिए दाखिल हुए चाटुकार
सबसे पहले मुखालफत की जूतों ने
रुक गये-ठिठक कर-पैरों से निकाले जाते ही
एकजुट हो गये
दरवाजे पर
इंकार किया उन्होंने
धूल चाटने से

सिर चढ़ी टोपियाँ गयीं साथ
इसीलिये उछाली गयीं भरे दरबार में

फर्शी सलाम बजाते हुए
गिरीं कई-कई बार
उनके कदमों पर
खुद्दार थे मुई खाल के जूते
जो डटे रहे अन्त तक

हिनहिनाती रहीं टोपियाँ
राजा साहब की हाँ में हाँ मिलाकर


(प्रस्तुत कविता मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के मासिक प्रकाशन ‘साक्षात्कार’ के अप्रैल, 1997 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)

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