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Tuesday, November 1, 2011

राम थे, राम हैं और राम रहेंगे !

भगवान श्री राम को जीवन का अन्तिम सत्य मानने वाले भारतीय समाज में आज भी उस सत्य की तलाश जारी है, जो किन्ही भी परिस्थितियों में असत्य पर विजय पा सके। इतिहास और मिथ के द्वन्द्व में उलझे भारतीय समाज का यह एक ऐसा सच है जो सरल, सहज और सुगम राम के बारे में अभी तक एक मत नहीं हो पाया है। राम की उपस्थिति में भी यह समाज मानता है कि सत्य देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलता है और यह भी आवश्यक नहीं कि हर सत्य हर परिस्थिति में प्रत्येक के लिए सत्य ही हो, यह एक दुविधा की स्थिति है। किसी के लिए किसी विशेष परिस्थिति में असत्य सत्य से बड़ा हो जाता है, असत्य के मार्ग पर जाने पर ही यदि किसी का जीवन सुरक्षित होता है, तो असत्य को सत्य में बदलने से कौन रोक सकता है ? लेकिन धर्म कहता है कि राम ही सत्य है, और इस सत्य के समक्ष कोई असत्य कभी नहीं ठहर सकता। शायद यही वजह है कि भारतीय जन-मानस राम के जटिल चरित्र को एक कालजयी महाकाव्य के रुप में देखता है, और यह अनुभव करता है कि राम भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों की स्थापना के आधार हैं। राम सामाजिक और नैतिक उत्थान की शक्ति हैं, एक ऐसी शक्ति जो अपने नाम के अनुसार ही सरल, सहज और सुगम तरीके से समस्त विश्व को सत्य का संबल दिये हुए है। राम के समक्ष सत्य ही खड़ा रह सकता है, असत्य में इतना साहस नहीं कि वह राम का सामना कर सके। शायद यही वजह है कि राम कण-कण में व्याप्त हैं और लोक-गाथाओं की जड़ों में समाये हुए हैं।
हिन्दू समाज मानता है कि राम कल थे, राम आज हैं और राम कल भी रहेंगे, क्योंकि परिस्थितियाँ बदलती हैं सत्य नहीं बदला करता, शायद यही कारण है कि राम के नाम में ही सत्य समाहित है। राम सत्य पर आधारित एक अति मानवीय समय की सबसे बड़ी व्यवस्था के सूत्रधार हैं। राम इसीलिए हमारे नायक हैं क्योंकि उन्होंने नैतिक मानदण्डों को पुनर्स्थापित करने का काम किया था। उन्होंने मर्यादाओं की सीमा में सत्य की स्थापना की थी। राम का सत्य काल्पनिक नहीं है, और वह किसी राजनैतिक कौशल का ही परिणाम है, बल्कि राम स्वयं सत्य हैं। राम हैं तो सत्य है, राम नहीं हैं तो सत्य भी नहीं है। राम सत्य का स्त्रोत हैं, सत्य की प्रेरणा हैं और सत्य की धारा हैं। राम का सत्य दृढ़ संकल्प का प्रतीक है, युग की सूत्रात्मा के रुप में राम अलौकिक हैं। राम की शपथ के बाद असत्य को कोई जगह नहीं मिलती, और इसीलिए राम प्राणी मात्र की आखिरी सांस में परब्रह्म-स्वरुप की तरह उपस्थित दिखाई देते हैं। राम एक ऐसा सत्य हैं, जो मानव मात्र के बहुत के बहुत करीब है, इसीलिए अनुकरणीय है। सत्य के पक्ष में जो लोग खड़े हैं, उनके लिए राम लौकिक भी हैं और अलौकिक भी हैं। राम के दिव्य मानवीय गुण उन्हें मर्यादा-पुरुषोत्तम बनाते हैं। सत्य के प्रतिनिधि के रुप में राम विकास की प्रत्येक दिशा में क्रियाशील हैं। राम का सत्य लोक-हित का सत्य है, यह सत्य अमानवीय सत्ता के समाप्त कर मानवीय सत्ता को प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील रहता है, इसीलिए राम का सत्य सर्वव्यापक सत्य हो जाता है, राम इसीलिए जन-जन का सत्य हो जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि जब-जब संसार में धर्म की क्षति होने लगती है, राक्षसी प्रवृत्तियों का आधिपत्य बढ़ जाता है, लोकाचरण में चारों तरफ अधर्म ही अधर्म दिखाई देता है, तब राम ऐसे असत्य को सत्य में बदलने के लिए साकार प्रकट होते हैं। असत्य को सत्य में बदलने की प्रक्रिया ही राम का होना है, सत्य के साथ होना राम के साथ होना है, राम के साथ होना धर्म के साथ होना है, क्योंकि राम का सत्य परम् कल्याण का सत्य है, राम सद्गुणों का समूह हैं, और यह पर्वत हजारों-हजार हिमालयों से भी ऊँचा है। राम का सत्य सर्वसिद्धिदायक महामंत्र है, राम का सत्य विषम परिस्थितियों में भयभीत नहीं करता, बल्कि धैर्य और कर्तव्य के प्रति हमारी आस्था और विश्वास को दृढ़ करता है। राम के सत्य के साथ रहकर हम असत्य पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, यह एक ऐसी विजय होती है, जो हमें अहंकार में नहीं ले जाती, बल्कि हमें विनम्र बनाती है, राम स्वयं विनम्रता की मूरत हैं, तभी तो महामुनि वशिष्ठ जी को राम से कहना पड़ा था कि ‘‘राम विनम्रता को भी आपसे विनम्रता सीखनी चाहिए।’’ ऐसा इसीलिए हो सका क्योंकि राम सदा कालजयी सत्य के साथ रहे, उन्होंने सामाजिक मूल्यों को नहीं टूटने दिया समाज को संचालित करने वाली मर्यादाओं की रक्षा के लिए राम ने वह भी किया जो देश-काल-परिस्थितियों में धर्म के अनुकूल नहीं थीं, लेकिन राम सत्य के साथ रहे, राम सत्य रहे, राम स्वयं कालजयी रचना बन गये और अपने भक्तों की आत्मा के भीतर ऐसे रच-बस गये कि उन्हें राम की धर्मभूमि ही मान लिया गया। राम की धार्मिक आस्थायें ऐसे प्रकाशित हुईं कि वह अजर-अमर हो गये, राम का सत्य सार्वभौमिक सत्य बन गया। आज राम के कारण ही अखिल विश्व में सत्य के पारस-स्पर्श का भाव देखने को मिलता है, धर्म और सत्य के दर्शन होते हैं, भक्त धर्म से दूर जाकर कभी संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि राम उनके साथ नहीं होते।
प्राणी मात्र के कल्याण के लिए इस पृथ्वी पर अवतरित होने वाले भगवान श्री राम के दर्शन जीवन की कई भाव-भूमियों पर होते हैं। गृहधर्म, कुलधर्म, लोकधर्म, विश्वधर्म और पूर्णधर्म की उच्चता के लक्ष्य और उसकी व्यापकता राम के आदर्शों और उनकी मर्यादाओं में कल्याणकारी रुप में देखे जा सकते हैं। राम जिस सत्य को लेकर चलते रहे उसने उन्हे धर्मश्रेष्ठ बना दिया। गृहधर्म और कुलधर्म का जिस गरिमा के साथ निर्वाह राम ने किया वह उदाहरण अद्वितीय है। इतना ही नहीं धर्म, लोकधर्म और विश्वधर्म के प्रति राम का आचार-व्यवहार उन्हें धर्म की पूर्णता देता है, और आश्चर्य इस बात का है कि राम के भीतर भी यह क्रमिक विकास उनकी अनुभूति के अनुसार ही दिखाई देता है। राम जिस सत्य के पक्षधर हैं वह मनुष्य के हित की साधना तो है ही, सत्य एवं आनंद की अनुभूति भी है। राम ने सत्य को धर्म बना दिया, राम ने सत्य को सभी तरह की दुविधाओं और द्वन्द्व से मुक्त कर दिया, राम के सत्य के समक्ष सभी प्राणी आनंद-उत्सव मनाते हैं, राम का सत्य व्यक्ति को अपराध-बोध से मुक्त करता है।
राम की लीला क्षेत्र को यदि देखें तो हमें पता चलता है कि हम विविध रुपों में सत्य को ही प्रकाशित होते देख रहे हैं, एक ऐसी दिव्य ज्योति के रुप में जो व्यापक दृष्टि से धर्म-ज्योति में बदलती है। यही बात राम के साधारण कार्यों को भी असाधारण बना देती है और राम के सत्य को ब्रह्मनाद में बदल देती है। चौदह वर्ष वनवास में व्यतीत करते हुए बहुत बार परिस्थितियाँ ऐसी आयीं होंगी जब सत्य राम के हाथ से फिसलने वाला हो गया होगा परन्तु राम विषम परिस्थितियों में भी सत्य के साथ रहे, उन्होंने धर्म का पालन किया, उन्हीं सिद्धियों की साधना की जिससे धर्म का अभ्युदय होता है, इसका परिणाम यह हुआ कि राम धर्म के सत्य को लोकजीवन तक ले जा सके और उन्होंने जंगलों में रहकर गुजर-बसर करने वाले वानरों के आचार-व्यवहार को ही बदल दिया। राम के सत्य की यही व्यापकता उन प्राणियों का भी धर्म बन गई जो असत्य का साथ देना ही धर्म मानते रहे। इसलिए कहा जा सकता है कि राम का सत्य इसीलिए अन्तिम सत्य हो सका क्योंकि वह जन-कल्याणकारी, सर्वव्यापक, मानवीय दृष्टिकोण से ओतप्रोत और बहुआयामी है। राम के सत्य की धर्मध्वजा अगर आज विषम परिस्थितियों की तेज आँधियों में भी फहरा रही है तो उसका केवल यही कारण है कि वह जन कल्याणकारी है। जो सत्य जन कल्याणकारी नहीं होता वह राम का सत्य हो ही नहीं सकता, राम के सत्य का उद्देश्य ही है, उच्चतम मानवीय मूल्यों की स्थापना।
राम जानते थे कि धर्म को बचाने के लिए सत्य की पक्षधर एक सुदृढ़ व्यवस्था चाहिए और राम यह भी जानते थे कि सत्य का पक्ष लिए बिना धर्म बचाया भी नहीं जा सकता, कोई व्यवस्था धर्म से विमुख होकर नहीं चलाई जा सकती और सत्य के साथ खड़े राम तो स्वयं धर्म के पर्याय हो गये थे, माता-पिता और गुरु के प्रति आदर भाव, भाइयों के प्रति स्नेह, प्रजा के प्रति वात्सल्य राम के भीतर यदि जन्मा तो उसका केवल एक ही आधार था कि राम सत्य के साथ खड़े थे। राम भले-बुरे के ज्ञाता थे, बावजूद इसके उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए कोई भी निर्णय भावुकता में भरकर पक्षपात पूर्ण नहीं लिया। राम सत्य की शक्ति को पहचानते थे, इसीलिए सीता के चरित्र पर जब प्रजा ने उँगली उठायी तब राम सीता की अग्नि-परीक्षा तक के लिए सहर्ष तैयार हो गये, उन्हें विश्वास था कि सत्य अटल है, उसे बदला नहीं जा सकता और झूठ के पैर नहीं होते, उसकी तो अकाल मृत्यु सुनिश्चित ही है। भरत की नीयत पर जब सब संदेह कर रहे थे, तब राम सभी द्वन्द्व से बाहर निकलकर पूर्ण विश्वास के साथ भरत के साथ खड़े हुए थे, राम जानते थे कि भरत सत्य के साथ हैं। यह बात यह साबित करती है कि जो सत्य के साथ है वह राम के साथ है, भरत राम के साथ हैं और राम भरत की दृढ़ता की भाव-भूमि पर खड़े होकर सत्य के साथ हैं। यह अद्भुद समीकरण है जो सत्य को प्रत्येक परिस्थिति में मंगलमय और कल्याणकारी बनाता है। राम की जय-जयकार सत्य की जय-जयकार है, राम का धर्म सत्य का धर्म है, जो आज लोकधर्म की शक्ति बना हुआ है। जहाँ राम हैं वहाँ अंधकार को हटना ही होता है।
कहते हैं कि त्रेता युग में जब पृथ्वी पर अधर्म और अत्याचार बढ़ गया, सत्य अपमानित होने लगा और असत्य को महिमामण्डित किया जाने लगा तब राम अवतरित हुए। राम आते ही तब हैं, जब अधर्म बढ़ जाता है, जहाँ राम होते हैं सत्य की विजय सुनिश्चित होती है। राम ने अधर्म पर विजय प्राप्त कर शुभ धर्म की पताका फहरायी थी, असत्य पर सत्य की विजय का स्मृति पर्व हैविजय दशमी यह सत्य की पुर्नस्थापना का पर्व है, यह रावण पर राम की विजय का पर्व है, इसीलिए आज कलियुग की विषमताओं में जी रहे मनुष्य के लिए इससे बड़ा आनंद उत्सव और कोई दूसरा नहीं है। यह आनंद उत्सव हमें स्मरण कराता है कि विजय अन्ततः सत्य की ही होगी और असत्य बहुत दूर तक साथ चलने वाला नहीं है। तो यह सोचना होगा कि इस आनंद उत्सव की सार्थकता किन बातों पर निहित है। यह उत्सव अगर हमें सिखाता है कि हमें बुराइयों से दूर रहते हुए सत्य के साथ रहना चाहिए, हमें राम के साथ रहना चाहिए तो यह भी देखना होगा कि आज के समाज में मनुष्य के पास इसकी संभावना कितनी शेष है। रावण के पुतले का बार-बार दहन करके हम राम साथ नहीं खड़े हो सकते, यह संतोष की बात भी नहीं है। राम के साथ होने का अर्थ है रावण पर सम्पूर्ण विजय। आज समाज में रावण अत्याचार, अनाचार, शोषण, दम्भ, द्वेष, कपट, छल, बैर, लूट, हत्या अपहरण, बेरोजगारी के रुप में अपने दशों शीश के साथ सिर्फ खड़ा हुआ है बल्कि सत्य का पक्ष लेने वाले लोगों की असहायता पर ठठाकर हँस रहा है। तो क्या सत्य का पक्ष कमजोर पड़ गया है ? राम कहाँ गये ? बार-बार विजय दशमी का पर्व किसकी हार के उपलक्ष्य में मनाया जाता है ? ये सारे सवाल एक संवेदनशील व्यक्ति के मन में उठते हैं, यह सवाल भी उठता है कि जब राम कण-कण में व्याप्त हैं, सत्य की स्थापना हो चुकी है तो असत्य को सिर उठाने का अवसर कौन दे रहा है ? यह सवाल अपनी जगह पर उठाये जा रहे हैं और अच्छाई द्वारा बुराई पर विजय प्राप्त करने की स्मृति भी रावण दहन के बाद हर्षउल्लास से मनाई जा रही है, निश्चय ही यह परम्परा बनाये रखना चाहिए। समाज यदि बुराई के विरुद्ध खड़ा नहीं होगा तो राम कलंकित होंगें। राम अर्थात सत्य कलंकित होगा। विजय दशमी की सार्थकता इसी बात में है कि समाज बुराईयों से मुक्त हो, इसलिए रावण की नाभि में बसे पोषणरुपी भ्रष्टाचार का जब तक समूल नाश नहीं होगा, तब तक राम की विजय के बाद भी वह बातें बची रह जायेंगी जो सत्य को कलंकित करती हैं। दशानन के सिर कुचल देने से कोई बात बनने वाली नहीं है, रावण की नाभि तक जाना होगा जहाँ भ्रष्टाचार का पोषण करने वाला अमृत मौजूद है। विजाय दशमी का पर्व हमें यह सिखाता है कि जब तक मनुष्य अपने भीतर निवास कर रहे रावण को पहचान नहीं लेता तब तक लज्जा, श्रद्धा, साधना, वंदना और शान्ति रुपी सीता का हरण होता रहेगा।
विजय दशमी का पर्व असत्य पर सत्य की विजय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है जो हमें विकार रहित होने का संदेश देती है। विजय दशमी का पर्व हमें बताता है कि रावण के पुतले का दहन कर देने के बाद रावण का नाश नहीं हो जाता उस रावण का भी दहन करना होगा जो कहीं हमारे भीतर छुपा हुआ है और हमें सद्मार्ग से भटका रहा है। रावण अगर भयभीत होता है तो सिर्फ राम से अर्थात असत्य अगर डरता है तो केवल से, असत्य सत्य का सामना नहीं कर पाता, इसीलिए राम को अंगीकार करना है उसके प्रतिरोध के लिए सत्य पर आधारित रणनीति भी बनानी है, मर्यादायें भी देखनी हैं, जीवन मूल्यों को भी बचाना है और पराजित भी नहीं होना है। रावण दहन किया जाना चाहिए क्योंकि यह बुराईयों को छोड़ने का समाज द्वारा किया गया संकल्प है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर राम मय होकर कोई भक्त एक बुराई का भी त्याग कर देता है तो विजय दशमी का पर्व सार्थक हो उठेगा। यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई राम नहीं हो सकता वे सारे लोग राम हो सकते हैं जो सत्य के साथ खड़े हुए हैं और यह विश्वास रखते हैं कि सत्य कभी पराजित नहीं होता। महामानव महात्मा गाँधी जीवन के अन्तिम छण तक सत्य के साथ रहे उन्होंने राम का हाथ नहीं छोेड़ा तो राम भी उन्हें छोड़कर कहीं नहीं गये। कोई सत्य को नहीं छोड़ता तो सत्य भी उसे नहीं छोड़ता। विजय दशमी का पर्व भगवान राम के मर्यादित जीवन की सुगंध है जो प्राण वायु की तरह प्रतिपल प्रत्येक प्राणी को जीवित रखे हुए है। यह पर्व समाज व्यवस्था के लिए एक स्मरणीय अनुष्ठान है यह अनुष्ठान मनुष्य को साहस,क्षमा,दया और परोपकार की भावना से भर देता है। यह भी देखना होगा कि असत्य यदि समाज में उपस्थित है, तो उसके कारण क्या हैं ? सत्य इसका विरोध क्यों नहीं कर पा रहा है ? इसे भी जांच लेने में कोई हर्ज नहीं है और यूँ तो विजय दशमी की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य सबसे पहले अपने को बदलने का संकल्प ले। एक-एक व्यक्ति बदलेगा तो पूरे समाज को बदलने से कौन रोक सकता है ? जब सब सत्य बोलेंगे तो असत्य को तो भागना ही पड़ेगा।
असत्य पर सत्य की विजय का पर्व विजय दशमी भगवान श्री राम के संदर्भ में यह प्रमाणित करता है कि श्री राम दूसरों के दुख में दुखी होना जानते थे, इसीलिए वह जन-जन के आराध्य बने। राम की सम्पूर्ण छवि लार्जर देन लाईफ थी, वह मानवीय गुणों से पूरित थे। प्रख्यात शायरअल्लामा इकबालने राम कोइमाम--हिन्दकहा था। उनका कहना था कि राम का चरित्र वाकई अनूठा है, सत्य के लिए लड़ने वाला इतना बड़ा योद्धा पहले कभी नहीं हुआ। निदा फाजली मानते हैं कि राम बच्चों को लुभाते हैं, माओं के चेहरे पर मुस्कान लाते हैं, भक्तों को भयमुक्त करते हैं और दुष्टों को भयभीत करते हैं। राम का सम्पूर्ण जीवन असत्य से लड़ने की प्रेरणा है, सत्य को जानना राम को जानना है। श्री राम प्रजावत्सल हैं, उन्होंने लोकहित के लिए एक आदर्श शासक की तरह अपने सुखांे का त्याग कर दिया था, यही कारण है कि आज आपसी संवाद में भगवान श्री राम जय राम जी होकर रह गये। प्रजा राम की सत्य के कारण जय-जयकार करती है, यह अभिवादन राम के प्रति सम्मान का भाव तो व्यक्त करता ही है उस सत्य के प्रति भी अपना विश्वास व्यक्त करता है जिसे राम ने असत्य को पराजित करके प्राप्त किया था। सर्वशक्तिमान होकर भी राम शक्ति का प्रदर्शन नहीं करते। राम न्याय की बात करते हैं, राम चाहते तो किसी भी पल वह रावण का वध कर सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। राम असत्य के आधारों पर खड़े रावण के अहंकार का ही नाश करना चाहते थे, रावण का वध उनका उद्देश्य नहीं था, रावण को सद्मार्ग पर लाना उनका उद्देश्य था और इसीलिए उन्होंने रावण के साथ युद्ध को इतने दिनों तक लटकाये भी रखा।
राम के चेहरे पर भक्तों को जो प्रसन्नता, जो मनमोहक हँसी दिखाई देती है वह राम के अन्तर्मन में प्रज्वलित सत्य के सूर्य का प्रकाश ही है और यही पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है। पृथ्वी पर जब तक राम हैं असत्य की एक नहीं चलने वाली, राम थे, राम हैं और राम रहेंगे। सत्य था, सत्य है और सत्य रहेगा। क्योंकि सत्य का हर पक्षधर जानता है कि रामनाम सत्य है और विजय दशमी उसी सत्य का प्रजातांत्रिक अभिनंदन है।

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