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Thursday, July 28, 2011

दस्तकें !

बार-बार यह अहसास
मुझे क्यों छू लेता है ?

कि मैं अपनी जांघ पर
पक आये फोड़े की
पीड़ा भोगने लगता हूँ,
कि मैं आक्रोश की आग में
जलकर भी गूंगा हूँ,
कि मैं जमात की
एक टूटी हुई इकाई हूँ,

भोगने का सुख
निरन्तर भोगते रहने में है - अगर
तो पोस्टल आर्डर की तरह
मैं हर जगह कैश हो रहा हूँ
एप्लीकेशन्स के लिफाफों में,
मेरी शोहरत घर-घर पहुँच रही है

दोस्तों से रुपये उधार लेकर
यकायक अमीर हो जाने की आशा से
खरीद रहा हूँ लाटरी के टिकट
तोते से पर्ची निकलवाकर
कई बार मैंने अपने आप को समझाया है
पायजामा उठा-उठाकर बीच सड़क पर
तिल के निशान तलाशे हैं
और भाग्य को माँ के साथ जोड़कर
महसूस करता रहा हूँ
आँखों में कड़वाहट
बहन को पड़ोस वाले भाई साहब
रुपये क्यों देते हैं ?
मुझे पता है,
उन्हे मुझसे इतनी
सहानुभूति क्यों है ?
जानता हूँ मैं,
इन सवालों के जवाब
जेब में डालकर
जीने का अभ्यस्त हो गया हूँ,
एक ही कमीज का-सा अस्तित्व है
उतार भी नहीं सकता इन्हे,

मेज से मेज तक
फाइलों की तरह भटक रहा हूँ
कहीं कोई हस्ताक्षर नहीं
मुझे अर्थ देने के लिये,

बिखरने को
हम सब बिखर गये हैं,
बस पिंजड़े का मोह
हमें बाँधे है,
वरना तो सब धोखा है
हम अपने में
पूर्ण मगर आधे हैं।

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