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Thursday, July 28, 2011

रेत पर मछली !

मृत्युबोध अब मुझे
उतना नहीं तोड़ता
जितना कि हर सुबह
आरंभ होने वाली
यात्रा का भय।

ठहरे हुए पानी की तरह
अपनी ही परिधि से घिरा हुआ
अपने उत्साह को देखता रहा हूँ -
आत्महत्या रचते,
ऐसे में जब कभी
मैंने जानना चाहा अपना भविष्य
तब आईना ही झूंठ बोल गया
और मैं दूर-दूर तक फैली रेत में
पगडंडियाँ तलाशता रहा,
रेत मेरे अस्तित्व की रेत
आज तक अपनी छाती पर
महसूस कर रही है इतिहास के पांव

आजकल जब सूरज दम तोड़ देता है
और भौतिकता के अंधेरे में
खोजने लगता हूँ मैं खुद को
तो एक भय
मेरा पीछा करता है दबे पांव
वांटेट के काँलम में
मैं खुद को पहचानने की कोशिश करता हूँ
ढ़ेर-सी सहानुभूति लेकर
मैं बस में सवार होता हूँ
चढ़ते-उतरते आस-पास से गुजरते
आदमी में आदमी को खोजता हूँ
और पाता हूँ
कि हर मेज के नीचे एक दराज है
दराज में रेत है
रेत पर मछली है
चांदी-सी चमकती मरी हुई

यह मत कहो कि मैं निराशावादी हूँ
मैं चिल्ला नहीं सकता
मैंने अपने दर्द को खामोश कर दिया है
क्लोरोफार्म सुंघाकर
मैं नामर्दों-सी जिंदगी जी रहा हूँ

सच तो यह है
कि मैंने अभी हाथ भी नहीं खोले
आजाद होने के लिये
हालांकि पुर्जा-पुर्जा
एक क्रांति की संभावना रची जा रही है
एक दहशत भीड़ चीरकर निकल आयी है
मैं फिर अकेला हो गया हूँ
बिल्कुल अकेला

अक्सर निरुत्तर हो गया हूँ
घर से घसीटकर
मेरे हाथों को बना दिया गया है
समर्थन हाथ
आंकडों की भाषा में पढ़ाया गया मुझे
देश का वर्तमान

उड़ते वायुयान के पीछे अब
मेरे गांव के बच्चे नहीं भागते
बड़े वैसे ही पीते हैं हुक्का
औरतें संजोकर रखती हैं
मासिक-धर्म की तारीखें
जानने को सब जानते हैं
कि यह एक शोर है
इससे नहीं फटेगा आकाश
नहीं खिलेगी धूप
रेत पर मछली बेतहाशा
तड़प रही है
और बंदूक तो क्या,
नाखून भी नहीं निकलते

यह कैसी यात्रा है ?
मृत्युबोध से अधिक जीवित अंतहीन।

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