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Sunday, June 19, 2011

मुट्ठी में बारूद !

तुम क्यों आक्रन्त हो उठती हो मेरी मां ?
पिता आपकी आवाज क्यों थर्राने लगती है ?
सारा का सारा खोखला परिवेश
क्यों पारे सा भारी हो उठता है ?
क्यों गहरा जाता है बीमार सूनापन
तुम्हारी आंखों में मेरी उम्र ढोती बहन ?

जब आक्रोश में उबलता रोज-रोज के
पचड़े को खत्म करने के लिए
मैं मुट्ठियों में बारूद ले लेना चाहता हूं
जब कभी मुझमें जागता है कोई गौतम
तुम सब अधूरे हो उठते हो
डरते हो तुम सब
कि शहर का कोई चौराहा
मेरी पीठ में छूरा घोंपे जाने के बाद
मेरी इस शहादत में शरीक भी ना होगा
रोज-रोज एक सा गाने वाले जुलूस
मेरे लिए एक पल भी ना रुकेंगे
कहानी बस यूं ही चलती रहेगी - यूं ही

हम अंधेरे के आदी हो गए
इसलिए रोशनी की इच्छा को मर जाने दें
कम से कम मेरी आत्माभिव्यक्ति
से परे है ये बात
मेरे हाथों में सूरज है
तो कहीं ना कहीं आग अवश्य दहकेगी
हम अपनी आकांक्षा के हाथों
रचेंगे अपना भविष्य
ये विश्वास समेटकर भर रहा हूं नंगे पैर।

मुझे पता है
तुम्हारा आज बीत गया
कल भी बीत जाएगा
पर मैं तो
पूरी की पूरी यात्रा के आरम्भ में हूं
मैं कैसे हाथ बांधकर
ये मजमेंबाजी देखता रहूं

छोड़ो मेरा मोह
मेरी मां, मेरे पिता, मेरी बहन
गंडे और ताबीज पहनकर
तुमने मुझे रचा है ऋणी हूं
देश की दम-घोटू हवा में
अगर मेरा दम घुट भी जाए तो क्या
तुमने तो धर्म के आवेश मिटा लिए
मुझे जन्म देकर

सुबह की रोटी का प्रश्न सुलझाकर
शाम की रोटी का मोहताज हो जाना
हम सब जबरदस्ती
दया के पात्र बना दिए गए हैं
सारी की सारी पीढ़ी
बैसाखियां ढूढ़ रही है

तुम सबों की आंखों में
मैं इसलिए गड़ रहा हूं- क्योंकि मैं आवारा हूं
सुबह से शाम तक
डिग्रीयों की फाइल दबाए भटकता हूं
उन कुर्सियों को सर नहीं झुकाता
जिनके आगे चमचे घिघियाते हैं

आवारा नहीं मेरी मां
मैं सड़क के किनारे बेजरुरत
उग आया दरख्त हूं
लगाने से पहले मेरी कीमत
किसी ने नहीं आंकी।

ठोकर लगते-लगते अब ये पैर
इतने चोटीले हो गए हैं
दुर्व्यवस्था की गर्द
इनमें इस बुरी तरह भर गई है
कि अब कोई
चोट दुर्घटना बन ही नहीं पाती
पीढ़ी की पीढ़ी थक गई है
निराशा के हाथ इतने भारी हो गए हैं
कि अब ये समझौतों और समर्थनों के लिए
उठ ही नहीं सकते

हम धुंधलके में खोज रहे हैं रोशनी-पंुज
हम अपने अंदर की आग से फूंक देंगे
इस सर्कसी तंबू को
हम नियम हैं ज़मात हैं
हमारे विश्वास पर रख दी गईं हैं
बर्फ की सिल्लियां
उनकी शर्म की राजनीति
अगर चाहे तो अपना ढोल पीट सकती है
लेकिन इसका अहसास
किसी बिजोखे से अधिक होगा
हम नहीं सोचते

हम रचेंगे एक युद्ध इनके खिलाफ
इन्हे सोचने के लिए मजबूर करेंगे
हम सिरफिरों को पागल करार देकर
गोली मार देंगे
देश को बचाने के लिए
हम नकारने की नीति स्वीकारते हैं

मां अब किसी रात मैं घर ना लौटूं
तो तुम पेट पर पट्टियां बांधकर
बैठी मत रह जाना
खूब गहरी नींद सोना
ईश्वर ना करे तुम्हे बुरे सपने आयें

जागने का बहाना लेकर मेरी बहन
तुम भी कोई बदमज़ा कहानी
ना सुनती रह जाना बाबू जी से
दरवाजे की सांकल बजे ना बजे

मैं जा रहा हूं
एक थकी पीढ़ी का नायक बनकर
अंधेरे को काटने के लिए
सूरज की जलती किरणें लेकर
विरोध के लिए हमारे पास
अपना दर्द ही इतना है
कि अब शान्ति के लिए
मुट्ठियों में बारूद लिए हैं हम
हम सुबह लेकर आयेंगे
हम नई सुबह लेकर आयेंगे

पटाक्षेप
मैं अपने भीतर झांक रहा हूं
मुझमें मजबूरियों के कीड़े बिलबिला रहे हैं
खा रहे हैं
मेरे वर्तमान को मेरे भविष्य को
ओ मेरे विश्वास तू क्यों कांप रहा है ?
रोती मां को तू क्यों नहीं छोड़ सकता ?
बूढ़े पिता की आंखें क्यों निरीह हो उठीं हैं ?
बहन ने क्यों तेरा हाथ करकर पकड़ रखा है ?

कितनी भयावह है ये आधे-अधूरे की स्थिति
एक-दूसरे पर आश्रित
हम आत्महत्या की तरफ जा रहे हैं

हथेलियों में बारूद सील गई है
मैं ठंडा हो गया हूं - ठंडा हो गया हूं।

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