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Sunday, June 12, 2011

धूप के पैर !

बेअसर और बेलगाम हो गए हैं हम
क्योंकि हम तुम्हारी सौंपी
दिशाओं में भटक गए हैं

क्या तुमने कभी जिया है
वर्तमान का अंधा भूगोल
कभी किसी सड़क पर
तुमने महसूस किया है
निरुद्देश्य जिंदगी की निरर्थकता
मुट्ठियों में उबलते आक्रोश
के टूटने का दुःख
रक्षक दीवारों का परायापन
तुम तो सिर्फ हमारे
असभ्य होने का कीर्तन करते हो
अपेन इतिहास को
बिछा-बिछाकर सोते हो

तुम क्या जानो कि
हम पंख कटे पक्षी
सिर्फ छटपटाते हैं उड़ नहीं सकते

तुम्हे क्यों हमारे आकाश तक
फैले हाथ
विद्रोह का विस्तार लगते हैं
हमारी चीखें क्या
अर्थहीन, अविश्वसनीय हैं
पोस्टर, नारे, हड़ताल
ये नाटक अगर हमारे लिखे हैं
तो इनके सूत्रधार तुम हो
केवल तुम

बंद फाटकों के इस पार
हम सुनना चाहते हैं
अपने अस्तित्व का मूल्य
और तुम सहानुभूति तो क्या
अपनी मठाधीशी के नाम पर
हमें फुसलाने वाले
कागजी आश्वासन
बांटने में भी असमर्थ हो

धूप के पैर
कब तक बेआवाज
रचते रहेंगे चक्रव्यूह
और हम टूटते रहेंगे पत्तों की तरह
इस पल, हर पल।

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