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Sunday, June 19, 2011

यातना घर !

जी हां, बिल्कुल सच है
मैं देवताओं के देश में पैदा हुआ हूं
ये बात और है कि यहां उग आए हैं
नारकीय आग के जंगल,
करोड़ों भूखे पेटों पर बंधीं हैं पट्टियां,
मैली हथेलियों में मर गईं हैं भाग्य रेखाएं
और हमारी जिंदगी को संवारने के दावेदार
संसद की कुर्सियों पर बैठकर
लिख रहे हैं
हमारा वर्तमान, हमारा भविष्य
मंदिर छोड़कर भाग गईं हैं हमारी आस्थाएं
घने कोहासे में

बाप-दादों का बूढ़ा सूरज
कोरे आश्वासन के नाम पर
काट रहा है गले

टोपियां रच रहीं हैं कुचक्र
काले चेहरे वाले दधीचियों की हड्डियां
खोज रहीं हैं समस्याओं का समाधान

देवताओं का यह देश
इतिहास की किताबों में सूख रहा है
चारों ओर कंटीले तारों का घेराव,
उबलता समुद्र, ठंडा वर्तमान
बारूदी सुरंगों पर बिछे गांव, कस्बे, महानगर
सारा कुछ समा गया है भूख के पेट में
बूढ़े घोड़ों की पीठ पर
सवार है हमारा सहमा कल

घोंघे की चाल से तय हो रहा है
रेगिस्तानी सफर,
समझौतों के चश्में लगाए
कोहासे फटने की राह तक रहे हैं लोग
दीवार पर टांग दिए गए हैं गांधी
और खादी में लिपटे लोग
मुस्कुरा रहे हैं पूरी बेशर्मी से

व्यवस्था को जेब में रखकर
ये फैल गए हैं हवा में
राजा की अनुकम्पा से
यह देश यातनाघर बन गया है

जी हां !
यहां मैं पैदा हुआ हूं।

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