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Sunday, June 12, 2011

बीच यात्रा में !

टूटे और बुझे मन से श्वेतांक ने पूछा-
और आकांक्षा ?

मैं चुप
लगा कि कोई बिल्ली
फिर अपने बदन को समेटकर
सींखचे के इस तरफ दाखिल हुई है
अभी मेज पर रखा शीशे का गिलास
शान्ति की छाती पर
झनझना कर टूटेगा
और मैं अपने ही भीतर से ढ़केलकर
दरवाजे से बाहर कर दिया जाऊँगा

तेज सांसों के दौरान
अपनी पुतलियों की सतह पर
मैंने महसूस किया
पानी की झील को
जंगलों से आती
हवा की आवारा नदी में
सहमा-सा तैरने लगा था मैं
कि अचानक
श्वेतांक ने पूछा-
और आकांक्षा ?

सुनते ही
मेरी फौलादी पीठ पर
शुरु हो गया निराशा का दर्द
लगा कि मैं भूखा हूँ पर खा नहीं सकता
मैं प्यासा हूँ और पानी में गंध है
भूत मेरे जूतों के नीचे दम तोड़ चुका है
भविष्य मेरी मुट्ठियों में कैद है
पर ये वर्तमान
ये तो शराब की तरह
नीली धार काटता
गले के नीचे उतर रहा है
और हम अपने-अपने झण्डे उठाए
मर्सिए गा रहे हैं

सीने में उबल रहा है गूंगा आन्दोलन
और आकांक्षाओं के चारों तरफ
ख्ंिाचा है मौन व्रत

किसी अस्पताल के वार्ड में
जैसे पसरा रहता है
डरावना सन्नाटा
रहस्य बनी होती है
किसी फ्लोरेंस नाइटिंगेल की फुसफुसाहट

सोचता हूँ कितना सरल है
किसी नवजन्मंे बच्चे को
मिट्टी के नीचे दबाकर
रास्ते बदलना
पर एक ही सड़क पर
लगातार चलना बहुत मुश्किल है

निराशा के डरावने हाथ
मुझे शून्य में उठाए ले जा रहे हैं
कल जब
काफी ऊँचे से गिराया जाऊँगा मैं
तब नीचे पड़ा होगा
श्वेतांक के प्रश्न का उत्तर।

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