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Sunday, June 12, 2011

पड़ाव ऋतुओं से !

चलते-चलते अचानक
क्यों ऐसा लगता है कि
वक्त ठहर गया है

बेमानी जिंदगी
दरवाजे के उस पार बेबस
दूर झरते पतझड़-सी टूट रही है
खत्म हो रही है
और मैं कभी लौट आने वाले
बसंत के अहसास से भी
भीगने में असमर्थ हूं

वे कौन से रंग हैं
जो मुझे बेवक्त बूढ़ा बनाकर
सूख गये और
पूरा का पूरा कैनवस
एक ही कील पर
दीवार-दायरे के मध्य
लटकने को मजबूर हो गया है

एक निरुद्देश्य सफर के बीच
मैं क्यों नहीं आती ऋतु के लिए
स्वागत गीत गा पाता
बजते पत्तों का संगीत
यह धूप सेंकती दोपहर मेरे लिए
क्यों एक उदास रचना करती है
और मैं घबड़ाया-सा
ऋतु लौटने को महसूस कर
अलविदा के इशारे करने लगता हूँ
ऋतु ओझल होने तक
कि फिर एक पड़ाव रचना
आरम्भ हो जाती है

ऐसा क्यों होता है ?

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