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Sunday, June 12, 2011

।। बेघरों के घर।।

जहाँ-जहाँ नहीं फैले हैं- अभी तक-
महानगर/ वहाँ-वहाँ बेसुध-बेहोश-सा
पसरा है ब्रह्मराक्षस

निश्छल संवेदनाओं की छाती पर जैसे उग रहा है
कांक्रीट का जंगल.
दुर्भाग्य के ताप से तपता हुआ.

सड़ांध में बजबजा रही है जिन्दगी
कल्ले फूट रहे हैं कूड़े के ढ़ेर में
फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन

औरतें एक सींक की आड़ में
खुले आकाश के नीचे
हल्कीहो रही हैं- घरों से दूर.
धड़धड़ाती गुजर गयी है कालका मेल
अभी-अभी उनके सामने से.

बुल्डोजर की आवाज सुनकर
दरक गया है उठल्लू का चूल्हा.

कल ये यहाँ नहीं होगें
नक्शा-नवीसों ने नाप-जोख ली है
उनकी जमीनें

विश्वकर्मा बनाएंगें यहाँ आलीशान
बिजनेस कॉम्पलेक्स

कहीं और जाकर शरण लेंगे तब
बेचारे खानाबदोश
बेघरों के घर !

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