अविस्मरणीय
मेरा सौभाग्य रहा
नागार्जुन जी से मिलना...
उन दिनों मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र था। क्रांति का मतलब मैं अच्छी तरह से समझता भी नहीं था, लेकिन विश्वविद्यालय का माहौल देश की तमाम छोटी - बड़ी ज्वलंत समस्याओं के निराकरण की मांग को लेकर उबल रहा था। बेरोजगारी उस समय भी चरम पर थी । छात्र इस बात से बहुत डरे हुए थे कि उनका कोई भविष्य नहीं है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में क्रांतिकारी छात्रों के कई गुट अपनी - अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर सक्रिय थे और पोस्टर तथा नारेबाजी के जरिए यहां- वहां आंदोलन करते रहते थे । उसी समय बिहार में जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन छेड़ा था । इस आंदोलन को लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन जिन मुद्दों को लेकर चलाया जा रहा था कमोबेश सभी राजनीतिक दल उससे सहमत थे। जयप्रकाश नारायण जी समर्थकों को लेकर के बिहार में जगह- जगह आंदोलन कर रहे थे । पटना में भी इसकी सरगर्मी थी । इलाहाबाद के बहुत से छात्र आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से पटना जा रहे थे । उसी में मैं भी अपनी -अच्छी बुरी राजनीतिक समझ के साथ छात्रों के साथ पटना गया था।
उस आंदोलन में पहली बार मैंने नागार्जुन जी को मंच पर बैठे हुए देखा। नागार्जुन जी जनता को संबोधित नहीं करते थे बल्कि महत्वपूर्ण लोगों के भाषण शुरू होने से पहले नागार्जुन जी कविताएं सुनाकर एक माहौल बना देते थे । नागार्जुन जी जब इलाहाबाद आते थे तब वह या तो हिंदी साहित्य सम्मेलन के अतिथिगृह में रुकते थे या उस समय के बहुचर्चित कवि लेखक कहानीकार अजित पुष्कल जी के यहां उनका रुकना होता था । मैं उसी मोहल्ले में रहता था यानी कल्याणी देवी पर जहां अजित पुष्कल जी रहते थे। हम उनके यहां जाते तो हमारी मुलाकात नागार्जुन जी से होती । वहां भी उनके साथ साहित्य चर्चा चलती और नागार्जुन जी अपने अनुभव हम लोगों को सुनाते। यहां उनकी कविताएं सुनने का भी अवसर मिला । मेरे ससुर पंडित जगपति चतुर्वेदी के नागार्जुन जी मित्रों में थे । उनके घर आया - जाया करते थे । वहां भी कई बार नागार्जुन जी से मिलने का अवसर मिला ।नागार्जुन जी की कविताएं तो मुझे पसंद ही थी । सबसे ज्यादा अच्छा लगता था उनका व्यक्तित्व। एकदम जमीनी आदमी थे । जहां मन किया बैठ गए ,जो मन किया खा लिया, जो मिल गया पहन लिया । कोई विशेष आग्रह उनके जीवन में मैंने नहीं देखा । मुझे याद है कि एक बार वह मेरे ससुर के साथ हीवेट रोड के फुटपाथ पर सत्तू की दुकान पर जा पहुंचे फिर वहां मेरे ससुर और नागार्जुन जी ने बैठकर सत्तू खाया ।उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि कितनी बड़ी विभूति उस सत्तू की दुकान पर बैठी हुई है । मेरे विवाह में सम्मिलित हुए थे नागार्जुन जी। आकर उन्होंने बस यही कहा था कि तुमने भी वही किया जो सब करते हैं। मेरी पत्नी को बेटी की तरह मानते थे तो उन्होंने मुझसे इतना और कहा कि मैं उनकी बेटी का हमेशा ध्यान रखूं। नागार्जुन जी मेरी शादी में शामिल हुए थे , इसका गर्व मुझे आज तक है। इसके बाद मेरी मुलाकात नागार्जुन जी से तब हुई जब वह एक बार गाजियाबाद में वर्तमान साहित्य के दफ्तर में आए। मेरे ही कमरे में आकर बैठ गए बल्कि लेट गए मेरे बिस्तर पर। मैंने उनसे आग्रह भी किया कि आप यही रुकिए लेकिन वो रुके नहीं और गाजियाबाद की एक एक चर्चित कवित्री निर्मला गर्ग घर चले गए । मुझे और मेरे सहयोगी ओम प्रकाश गर्ग शाम को वही आने के लिए कहा । मैं गया तो वहां आयोजित एक संगोष्ठी में और उन्हें बहुत सारी कविताएं सुनाई। यह नागार्जुन जी से मेरी आखिरी मुलाकात की । उसके बाद मैंने उनको कभी नहीं देखा। नागार्जुन जी से मिलना मेरे लिए एक बड़ा सौभाग्य था। उन्हें देखकर ही बहुत सी चीजें सीखने को मिलती थी । उनका व्यक्तित्व जरा भी आकर्षक नहीं था लेकिन उनमें कुछ ऐसा जरूर था जो सबको बांध लेता था । प्रेम की अविरल धारा उनके भीतर प्रवाहित होती रहती थी । आप अगर उनसे बातें करें तो वह खुश होकर आप को गुदगुदा भी सकते थे । उनकी हंसी बच्चों के जैसी थी। मन बहुत निश्छल था। उनके पास कभी इतना पैसा नहीं रहा कि वह अमीर जैसे दिखाई पड़ते लेकिन नागार्जुन जी अपनी तबीयत के रईस थे । उन्हें देहाती भोजन बहुत पसंद था। बाटी चोखा खाने के लिए तो वह कहीं भी जा सकते थे । कोई उन्हें कवि लेखक और साहित्यकार माने , यह उनकी कोई अनिवार्य शर्त नहीं थी । नागार्जुन जी इतने साधारण व्यक्ति थे कि सभी लोग उन्हें असाधारण मानते थे । बहुत दिनों से मन कर रहा था नागार्जुन जी जैसे विभूति के साथ मेरा जो भी मिलना- जुलना हुआ, उसे कलमबद्ध करूं। आज यह काम करके बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं ।
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