एक लंबी कविता / अजामिल
नंगा होता पेड़
हरे सागर से उफनते शोर की
भीगी सतह पर तुम झुकी थी और एक उंगली से लिखा था एक सपना,
मेरे और अपने नाम के बगल में
तुम अभी बना रही थी
एक मकान की तस्वीर कि लहर
किसी चील सी झपटी और ले गयी
सुनहरी मछ4लियों की आंख,
हम रह गए स्तब्ध
हमारे रह गए एकांत
यहीं से नंगे होते पेड़ की कहानी
शुरू होती है...
आदिम अंधेरा रात के इस खतरनाक
आकाश में झूल रहा है
और अतीत के डरावने चेहरे को देखते हुए कांप रहा है वह,
तापक्रम के लगातार गिरते जाने की
शिकायतें अफवाह बन रही है
और फसलों की चोरी के किस्से अब
चौपालों में गाये जा रहे हैं।
एक डरावनी लोककथा यही से
अभिव्यक्ति पाती है,
यहीं से पाला खाये देश की
कहानी आरम्भ होती है,
यहीं से वह खड़ा होता है
खुद खिलाफ लडाई में,
यहीं से मशालों के बीच घेरे
जाते हैं नुमाइन्दे,
यहीं से जंगल में
आग लगा दी जाती है,
बजा दिए जाते हैं गिरजाघरों
के घण्टे,
काँचघरों की भीतरी हदों में
यहीं से फुसफुटाहटें आकार लेती हैं
और महानगर कर्फ्यू के सन्नाटे के बीच
झेलने लगता है तेज सायरन की
आवाज़
खरीद फरोख्त की भाषा
खोती है आवश्यकताएं,
जब हादसा बनने से फ्लेलोग अम्ल और अख़बबरों का असर देखने लगते
अपनी डायरी में,
बिल्कुल
यहीं से जुलूस रास्ते बदलते हैं
और की गाड़ियां कानून उगलती
आदमी की नियति के बारे में एलान
करती है सड़क से ग़ज़रते हुए
और लोग सुविधाघरों में बन्द बाहर
उबलते शोर को सुनते हुए
डिनर ले रहे होते है,
एक कमज़ोर देश में लड़ाई
यहीं से शुरू होती है,
आदमी आदमी के खिलाफ खुफियागिरी करता
राजा की मुखाफत के लिए
तैयार होता है।
दोस्त , इस अंधे अंधेरे में
जबकि मेरे पास
हाथों की सुरक्षा के लिए
दस्ताने भी नहीं ,
मैं तिरंगे के तीन रंगों को लेकर हुए राजनैतिक हादसे को व्यक्त करूंगा ,
मैं बताऊंगा कि एक बीज कैसे बदल जाता है एक नामाकूल देश में ,
कैसे मूल्यों को पहनाया जाता है आदमी के नाम का जामा,
कैसे लोग मुर्दों की तरह दरिया के किनारे जलते प्रकाशपुंज
का पाले रहते हैं भ्रम ,
मैं एक कठपुतली देश हूं ,
मेरी पीठ में, हाथों में और पैरों में
कीलें ठुकी हैं ,
बाजे की बेसुरी धुन पर
मैं उनकी उंगली पर नाच रहा हूं ...
नंगे होते पेड़ की कहानी
यहीं से शुरू होती है ...
'बहुत पुरानी बात है ' कहकर नकारी नहीं जा सकती इस अकालग्रस्त रेगिस्तान की गाथा,
सूखे हुए आकाश के बेहूदा रंग
हर सुबह हर शाम कांपते रहे हैं दृष्टांत सीमाओं पर
और ऊटों के काफिले गले के भीतर से प्यासों के लिए फेंकते रहे जलथैलियां,
सुबह की नमाज के बाद
लोगों ने पहर बदलते तक छुपा रखी हैं हथेलियों में व्यवस्था
और कबूतरों को आकाश में फ़ेककर शांतिदूत बन गए रातों-रात
और सारा अर्जित वैभव दबे पांव तहखानों और मुर्दा हिसाब - किताब की काली किताबों में दुबक गया है. किसी पुरानी पेंटिंग से उड़ते रंग की तरह
अब और संस्कृति का बूढ़ापन नहीं गाया जा रहा है ,
ना परंपराएं अनुभव के नाम पर नए सिपाहियों की कमर में बांधी जा रही है बंदूक की गोलियों की बेल्ट की तरह, दरवाजे सूअर की तरह चिचियाकर खुल रहे हैं
और हवा को बदलने के लिए
वक्त रोशनदान खोल रहा है ,
एक दूसरे को बांह में आश्रय देते हुए
वे अपनी बच्ची के हाथ में सोने जागने वाली जापानी गुड़िया देखकर
अक्षरों का इतिहास लिख रहे हैं ,
दूध की शीशी किसी मासूम बचपन को मयस्सर नहीं है ,
नंगे होते पेड़ की कहानी
यहीं से शुरू होती है ..
चश्मे के मोटे लेंस के उस ओर से वर्तमान घूरती आंखें ,
मेरे पिता के नपुंसक अस्तित्व की कानाफूसी करते हैं और हिटलर की क्रूरतम राजनीति के विरोध में एक थमा हुआ अलार्म बजता है ,
समय में जुड़ी खरगोशी
मांसलता को लिए हुए
रूसो और मार्क्स सिद्धांतों के
आधार पर पिता को उल्लू बनाते हैं और गांधी चरखे के चक्र में क्रांति पढ़ा कर पिता को बदलना चाहते हैं
चौथे बंदर में ,
यहीं से रीत गई थी संभावनाएं ,
यहीं से रीत जाती है संभावनाएं ,
यहीं से युद्ध घरों में दाखिल होता है और बसंत का पीलापन औरतों के चेहरे पर बनता है बीमारियां ,
यहीं से नंगे होते
पेड़ की कहानी शुरू होती है...
गांव की सुनसान पगडंडियों से
जब रास्ते बनते हैं -
अतीत झांकने के लिए कोहरे के आधार पर बर्फ की पिघलती प्रेतआत्माएं दिखाई पड़ती हैं,
हजारों बारूदी सुरंगे खेत के रास्ते आदमी के दिमाग पर चोट करती है,इसी वक्त, और गुलाम पीढ़ी की आवाजें आजादी के लिए पंख फड़फड़ाने लगती है ,
कच्चे प्याज के छिलकों की तरह वक्त पर्त -दर- पर्त अलग होता है,
गुमसुम बच्ची की आंखों में रात - रात भर बारिश होती रहती है ,
ताज़े खून की एक धार चाकू के ऊपर चकत्ते के मानिंद जम जाती है। हलचल मां के पेट में होने लगती है और दूर बस्तियों में धधकने लगती है भूख की आदिम आग
सन्नाटे में गूंजती है
रोते बच्चों की आवाज़ें ,
खप्परों पर सारी रात रोती हैं बिल्लियां, और हुजूम किसी धीमी नदी की तरह बेस्वाद होने लगता है
यात्राएं उतार-चढ़ाव से मुक्त नींद में तब्दील होने लगती है
और स्वप्नदर्शी लोग
अंतिम प्रणाम के लिए
प्रार्थना में जाने लगते हैं ,
यहीं से कांपते खंखारते पिता
देशभक्ति के नाम पर य
बागी घोषित कर दिए जाते हैं ,
यहीं से पीठ पीछे नियुक्त की जाती हैं जासूसियाँ।
पानी की सतह पर कांपता - थरथररता है झुर्रियोंवाला चेहरा ।
नंगे होते पेड़ की कहानी
यहीं से शुरू होती है.
आदमियत की विभाजक रेखा
पार करने के बाद
जब शब्द गूंगे हो जाएं
और शरीफजादों के मुखौटों पर भयभीत हो उठे आंखें ,
मेज पर रखे गिलास के बारे में फिजा में तारी हो - आयतन भ्रम ,
तो कोई भी समझदार आदमी हो
टोपी के प्रश्न को लेकर
सफेद घोड़ों के खिलाफ हो सकता है और संबंधों के कब्र हुए दस्तावेजों पर ऑलपिन की तरह चुभोया
जा सकता है ,और हुआ भी यही था,
खेत में फसल की सुरक्षा में तैनात
मेरे पिता पर सफेद प्रेतआत्माओं ने हमला किया था ,
कोडों की भरपूर मार से वे नीले रंग के हो गए थे और मरते - मरते सुनहरी कलम से उन्होंने धरती पर लिखा था- यह जमीन मेरी है और यह फसल भी। घोड़ों की टॉप उन्हें छोड़कर
सर छुपाने के लिए
अंधेरी गुफा में चली गई थी।
बाहर शहर में उबलने लगा था शोर
नंगे होते पेड़ की कहानी
यहीं से शुरू होती है ।
भेड़ियों के मुंह खून लगा ,
कत्ल हुए मेरे पिता की चीख सड़ती लाश की बू की तरह हवा में गमकने लगी,
पहली बार लोहे के सीखचों को महसूस किया गया -
आजादी के इर्द-गिर्द
अश्वारोही पगचाप के मुकाबले के लिए वे परछाइयों की तरह
एक दूसरे से सटकर आती-जाती लहरों पर चोट करने लगे ,
किसी पुराने कागज की तरह सहेज कर रखी गई ताकत
शहर के गुमसुम चौराहों पर पत्तियों की तरह धमनियों में चरमराने लगी ।
राख रंग का स्लेटी मौसम लकड़भग्गों के दांतो के लिए नहीं रहा मुफीद और बारूदी गंध सड़ते कुँए से आने लगी। प्रेमिकाएँ चुंबनों में देने लगी अलविदा, माताएं सफेद वस्त्रों में
विधवाघरों में खोने लगी आत्मविश्वास, आकाश के कैनवस पर अंकुरित होने लगी आजाद की तस्वीरें ,
तालियां बजाते हुए बच्चों ने देखा घोड़े से भरे हुए एक जहाज का प्रस्थान, गाती चिड़ियों की निडर उड़ान ,
औरतों ने देखा धार्मिक तारीख में गुलाब का फूल
और नाचते-नाचते समर्पित हो गयीं पलाश की एक सूखी डाल को ।
सशंकित आंखें अफीम की गोली की तरह वक्त के मुंह में
चुभलाई जाती रही , प्रतिपक्ष के लिए सान पर बनाया जाता रहा चाकू - धारदार,
कांपते पंखों के बीच
रखा गया विश्वास,
स्नानघरों की दहशत उड़ाने की कोशिश में इस्तेमाल में लाए जाने लगे- प्रवचन और डायनामाइट , तनी हुई मुट्ठियाँ तनी रही हवा में
और सभाकक्षों में आदमी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर बहस को नियम बनाने के खेल चलते रहे ,
यही से नंगे होते
पेड़ की कहानी शुरू होती है ।
बौने लोगों की जमात वकीलों के आरोपों के उत्तर में
बयान बना ही रही थी अभी
कि सत्ता हस्तांतरित हो गई ,
कुख्यात शासक के हाथों से ओस की उड़ती बूंदों पर ,
एक किनारे से दूसरे किनारे तक दुविधाजीवी बूढ़ा दर के दर मर गया, शीशे की तरह चटक गई आस्थाएँ शीशे की तरह चटख गयी ,
बरसती हुई
आग के मध्य लोगों की गर्दन पर बधिक सत्ता का आदमी
न्यायालय के रास्ते बंद कर
सूली पर चढ़ते व्यक्ति को देखकर तालियां बजाकर हंसने लगा ,
कैदखानो की दीवारों पर ज्यों की त्यों लिखी रह गई किसी फांसीशुदा कैदी की आखिरी इच्छा -
आज की रात मुझे अच्छी शराब
और एक अच्छी औरत चाहिए ,
मैं थका हूं ,टूटा हूं बहुत ज्यादा,
सिगार पीता जेलर और जाघें खुजलाता हवलदार
पतझड़ की पराजय स्वीकार कर कानून बजाने के क्रम में
आंखें मींच कर बधशाला के भीतर गायब हो गए
और दरिया आहिस्ते से गुनगुनाता रहा एक पका हुआ गीत।
समानांतर चलते हुए बातें कितनी आम होती है ,
लड़ाई के हथियारों को चमकाते हुए हकदार लोग तंदूरी रोटी के
स्वाद को पाते ही खौफनाक घंटियों की आवाजों को तीसरी दुनिया का बसंत मान लेते हैं
और आगे जाने की होड़ में पिंग पोंग की गेंद की तरह हल्के हो जाते हैं , कुत्ते गाड़ियां उन्हें धूप की चिकनी सतह पर खींचती है और मिर्च का धुआं गंभीर गहराई में
करता है आत्म गर्भाधान ,
उसी शोकाकुल कुटुंब के प्रतिरात्रि उदास गीतों में बदलती है ,
जब निष्कासित सुबह की थकान से लोग अपनी लाशें घसीटते रेत पर चिट्ठियां बांटते हैं
और नारियल के तने ऊंचे पेड़ों की चायदानी से सूरज की
तपती देह झांकती है , शीशे के खोलते आयताकार मैदान में बुदबुदाती है
रांगे की नदी ,
अब वे शहर में गा रहे हैं
आखिरी दौर का गीत,
पेड़ों पर टंगी चुप्पी का मुर्दा एहसास, आदमी -आदमी मोहल्ला -मोहल्ला गोली के दबाव में
यातनाशिविर भोग रहा है ,
नशे में झूमते लोगों के पैरों में
चांदी के पहिए हैं
और सुरक्षा के लिए उनके सिरों पर लोहे की टोपियां,
बख्तरबंद लोगों की
यह अद्भुत स्तब्धता
कैचीं के बीच
फूलों की पंखुड़ियों की तरह है,
हर रात जब घेरे में बंधे तार पर बिजली स्पंदित होती है
नरक की सड़कों पर दिखाई पड़ती है संगीन सहित फौजी वर्दियां
तो डरी हुई मां और बीमार बच्चे अकस्मात आखरी आवाज
की प्रतीक्षा करने लगते हैं ,
यहीं से नंगे होते पेड़ की
कहानी शुरू होती है ।
इस अंधेरी रात में यंत्रवत बंदियों ,
सराय बदलने से पहले हम कुरेदकर मिटा डालें अपनी भाग्यहीन रेखाएं, वीभत्स दिनों के इस ग्रह -नक्षत्र को लोमड़ी के पंजों से बचाने के लिए
हमें खाल बदलकर
करना ही होगा एक पूर्वाभ्यास ,
पानी की सतह पर चक्कर फेरियां मारती भवरें हर पांच पतझड़ के बाद विकलांग करती है एक पीढ़ी,
खेतों में आग लगाकर विदेशयात्रा को जानेवाले लोग घायल आदमी के लहूलुहान ज़ख्मों पर
आत्मीय होने की परंपरा से अभ्यास हींन हो गए हैं और
हर नाटकीय स्तर पर काँपते हैं -
पानी के फूल .
पूरा का पूरा देश
आज सिली हुई जमीन पर उजड़ता नंगा होता पेड़ है ,
सुरक्षा शिवरों में भरे लोग
रफ्ता रफ्ता इसकी
हर सांस को पी रहे हैं और एक थका आदमी सहमी आंखों से रंगों को जीवन होते देख रहा है,
कल का अनिश्चित भविष्य एक सीधी लड़की सा शिकार हो गया है - बलात्कार का
वे लुटेरों की तरह लूट रहे हैं
नंगे होते पेड़ का
रहा - सहा हरापन।
**अजामिल*
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