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Tuesday, November 1, 2011

जिन्दगी !

तुम कुछ भी कहो मोटाभाई
जिन्दगी कुछ है ही ऐसी चीज !

नए सिरे से रोज परखना होता है
उसके कदमों की आहट
जब सब तरफ देखते हुए
तिल-तिल कर रेंगती है जिन्दगी
हर पल- आखिरी छोर की ओर।

कोई पेड़ जैसे खोता है- हरापन
पतझड़ के आतंक में
कोई नदी जैसे बदलती है रास्ते पहाड़ी से
उतरते हुए
जिन्दगी होती है बार-बार आईने के सामने
वक्त की गवाह बनकर

हमारी उम्मीद की उम्मीद है जिन्दगी
चहचहाती है हमारे भीतर- कोई अनछुआ
मीठा गीत बनकर
जिन्दगी उनकी सदा/ जो उड़ना चाहते हैं
नीले आकाश के अनन्त विस्तार में
जिन्हें हासिल करनी हैं मंजिलें
जो तलाश रहे हैं अपना वजूद
साहस जिनकी जड़ों में है
सुख-दुःख के धूप-छाँव में

एक बयान है जिनकी जिन्दगी।
एक मकसद-मतलब तलाशता हुआ।

मौत के आरामगाह में
नींदभर सपनों के लिए
इसीलिए तो खो देते हैं हम- सब कुछ।
आदि से अन्त तक
यह सोचते हुए
कि जिन्दगी है ही कुछ ऐसी चीज।

मोटेे भाई
ये कविता नई,
फलसफा है जिन्दगी का
इस स्लेट पर लिखो- सौ बार
जिन्दगी है ही कुछ ऐसी चीज।

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