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Sunday, June 12, 2011

वह काली लड़की !

कविता में
आज फिर दबे पाँव दाखिल हुई

अनुभूतियों और शब्दों के बीच
खोजने लगी
खुद को वह एक बार फिर
स्मृतियों के पीछे छुपकर खड़ी हो गयी चुपचाप
खिलखिलाकर हँसी अचानक
हाथ छुड़ाकर अतीत की तरफ भागी नंगे पैर

हवा का एक झोंका थी वह काली लड़की
जिंदगी में एक दरवाजे से आयी
निकल गयी दूसरे दरवाजे से
कविता में देर तक बसी रही उसकी देहगंध

काली लड़की की उपस्थिति
गहरा अहसास है अतृप्ति का
एक इच्छा है जो बनी ही रहती है - पल-प्रतिपल !!

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